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________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढममासगाहा * तासिं समुकित्तणा चे विहासा च । 5२४९. सुगमं। (१३३) पढमसमयकिट्टीणं कालो वस्सं व दो व चत्तारि । __ अट्ट च वस्साणि द्विदी विदियट्टिदीए समा होदि ॥१७६।। ६२५०. एसा पढमभासगाहा किट्टीवेदगस्स पढमसमए मोहणीयस्स टिदिसंतकम्मपमाणावहारण?मोइण्णा। संपहि एदस्स गाहासुत्तस्सत्थो वुच्चदे। तं तहा-'पढमसमए किट्टीणं कालो' एवं भाणदे किट्टीकारगपढमसमयं मोत्तण किट्टीवेदगपढमसमए एसो कालणिद्देसो कीरदि त्ति घेत्तम्वं'। सुत्ते तहाणि देसाभावे कथमेसो विसेसो लब्भदि त्ति णासंकणिज्जं, वक्खाणादो तहाविहविसेसपडिवत्तिसिद्धीदो। अण्णं च किट्टीणं कालपमाणमेत्थ परुवेदुमाढत्तं । ण च किट्टीकारगस्स पढमसमए परूविज्जमाणं दिविसंतकम्मपमाणं किट्टीणं कालो ति वोत्तुं सक्किज्जदे, किट्टीफद्दयसाहारणस्स तस्स किट्टीणं घेव कालो त्ति वोत्तुमसक्कियत्तायो । तम्हा विणद्वेसु वि फद्दएसु किट्टीओ वेव सुद्धाओ परेदूण द्विवस्स पढमसमय किट्टिवेदगस्स तववत्थाए पढमसमयकिट्टीओ णाम भणंति । तासि पढमसमयकिट्टीणं कालो किंपमाणो त्ति आसंकिय 'वस्सं व दो व चत्तारि अट्ठ य वस्साणि टिवी' त्ति तस्स पमाणणिद्देसो कदो। एगवस्सपमाणो दोवस्सपमाणो चत्तारिवस्सपमाणो अटुवस्सपमाणो च तासि ट्ठिदिकालो होदि त्ति वुत्तं होदि। * अब उन भाष्यगाथाओंकी समुत्कीतना और विभाषा करते हैं। ६२४९. यह सूत्र सुगम है। (१३३) कृष्टियोंके वेदन करनेके प्रथम समयमें द्वितीय स्थितिके साथ प्रथम स्थितिका काल एक वर्ष, दो वर्ष, चार वर्ष या आठ वर्षप्रमाण होता है। ६२५०. यह प्रथम भाष्यगाथा कृष्टि वेदकके प्रथम समयमें मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण करने के लिए अवतीर्ण हुई है। अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं। वह जेसे-प्रथम समयमें कृष्टियोंका काल ऐसा कहनेपर कृष्टिकारकके प्रथम समयको छोड़कर कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें इस कालका निर्देश करते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए। शंका-सूत्रमें उस प्रकारके निर्देशके अभावमें यह विशेष कैसे प्राप्त होता है ? समाधान-ऐसो आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि व्याख्यानसे उस प्रकारके विशेषकी प्रतिपत्ति सिद्ध है। दूसरी बात यह है कि कृष्टियोंके कालका प्रमाण यहाँपर कहने के लिए आरम्भ किया है। कृष्टिकारकके प्रथम समयमें कहे जानेवाले स्थितिसत्कर्मके प्रमाणको कृष्टियोंका काल कहना शक्य नहीं है, क्योंकि जो काल कृष्टियों और स्पर्धकोंमें साधारणरूपसे अवस्थित है उसे मात्र कृष्टियोंका काल कहना अशक्य है। इसलिए स्पर्धकोंके विनष्ट हो जानेपर भी शुद्ध ( केवल ) कृष्टियोंका ही आश्रय लेकर जो प्रथम समयवर्ती कृष्टियोंका वेदन करनेवाला जीव त है उस प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके उसकी उस अवस्था में प्रथम समयवर्ती कृष्टियां कहलाती हैं। प्रथम समयमें स्थित उन कृष्टियोंके कालका क्या प्रमाण है ऐसी आशंका करके 'वस्सं व दो व चत्तारि अट्ट य वस्साणि टुिदी' अर्थात् उनकी स्थिति एक वर्ष है, दो वर्ष है, चार वर्ष है और आठ वर्ष है-इस प्रकार उस कालका निर्देश किया है। एक वर्षप्रमाण, दो वर्षप्रमाण, चार वर्षप्रमाण और आठ वर्षप्रमाण उन कृष्टियोंका स्थितिकाल है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। १. आ. प्रत्तो वक्तव्यं इति पाठः।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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