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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5 २५१. तत्थ लोभोदएण चडिदस्स सेससंजलणेसु फद्दयसरूवेण विणद्वेसु संतेसु लोभसंजलणस्स किट्टीवेदगभावपढमसमए वट्टमाणस्स लोभसंजलणकिट्टीणं टिविसंतकम्मपमाणमेगवस्समेत्तं होदि । मायोदएण चडिवस्स माया-लोभकिट्टीणं टिदिसंतकम्मं वेवस्सपमाणं होदि । माणोदएण चडिवस्स माण-माया-लोभसंजलणाणं किट्टीविसेसिटिदिसंतकम्मं चत्तारिवस्सपमाणं होदि । कोहोदएण चडिदस्स चउण्हं संजलणाणं टिदिसंतकम्मं पढमसमयकिट्टीविसेसिदमटुवस्सपमाणं होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो। 'विदियट्टिवीए समा होदि' ति एवं भणिदे विदियट्टिदीए सह पढमट्टिदि घेतूण एसो अणंतरो कालपमाणणिद्देसो कदो। ण केवलं विदियट्टिदीए चेवेत्ति वुत्तं होइ, पढम-विदियट्टिदोओ अंतरट्टिवीओ च घेत्तूण णिरुद्धसमयविसयटिविसंतकम्मस्स तप्पमाणत्तदसणादो। 5 २५२. संपहि एक्स्सेवत्थस्स फुडोकरणटुमुवरिमं विहासागंथमोदारइस्सामो* विहासा। 5२५३. सुगमं। .६ २५१. लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके शेष संज्वलनोंके स्पर्धकरूपसे नष्ट हो जानेपर लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके वेदकभावके प्रथम समयमें विद्यमान हुए जीवके लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण एक वर्ष मात्र होता है । मायासंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके माया और लोभ संज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंका स्थितिसत्कर्म दो वर्ष प्रमाण होता है। मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके मान, माया और लोभसंज्वलनोंका कृष्टिसम्बन्धी स्थितिसत्कर्म चार वर्ष प्रमाण होता है। तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए जीवके चारों संज्वानोंका प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्कर्मका काल आठ वर्षप्रमाण होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। 'विदियट्टिदोए समा होदि' इस प्रकार कहनेपर द्वितीय स्थितिके साथ प्रथम स्थितिको ग्रहण करके यह अनन्तर पूर्वकालका निर्देश किया है । यह केवल द्वितीय स्थितिका काल नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है क्योंकि प्रथम स्थिति, द्वितीय स्थिति और अन्तर कृष्टियोंको ग्रहण कर विवक्षित समयको विषय करनेवाला स्थितिसत्कर्म तत्प्रमाण देखा जाता है। विशेषार्थ-लोभसंज्वलनके उदयसे जो जोव क्षपकोणिपर चढ़ता है वह मात्र लोभसंज्वलनसम्वन्धी तीनों संग्रह कृष्टियोंका कारक होता है। इसी प्रकार मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला जीव माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी छह कृष्टियोंका कारक होता है। मानसंचलनके उदयसे क्षपकोणिपर चढ़नेवाला जोव मान, माया और लोभसम्बन्धी नो संग्रह कृष्टियोंका कारक होता है तथा क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिषर चढ़नेवाला जीव चारों संज्वलनासम्बन्धी बारह कृष्टियोंका कारक होता है। साथ ही ऐसा भी नियम है कि जब यह जोव उक्त कृष्टियोंका कारक होता है उस समय उसके विवक्षित कृष्टिगत स्थितिसत्कर्मके साथ स्पर्धकगत स्थितिसत्कर्म भी पाया जाता है और प्रकृतमें कृष्टिगत स्थितिसत्कर्मका ही काल कहा जा रहा है, इसलिए इसे कृष्टियोंके उदयके प्रथम समयका ही जानना चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ६२५२. अब इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषा ग्रन्थको कहते हैं* अब इस भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६२५३. यह सूत्र सुगम है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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