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________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढमभासगाहा * जदि कोघेण उवविदो किट्टीओ वेदेदि तदो तस्स पढमसमए वेदगस्स मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्ममट्ठवस्साणि ।। ६२५४. कोहोदएण खवगसेढिमुवट्टिदस्स पढमसमयकिट्टीवेदगावत्थाए वट्टमाणस्स मोहणीयटिविसंतकम्मपमाणमटुवस्समेत्तं होदि त्ति सुत्तत्थसंगहो। एसो कालणिद्देसो चदुण्हं पि संजलणाणं सव्वासिमेव संगहकिट्टीणं पढम-विदियट्टिदीओ संपिडियूण अवस्समेत्तो ति गहेयम्वो। होउ णाम कोहसंजलणपढमसंगहकिट्टीए एसो कालणिद्देसो, वेदिज्जमाणाए तिस्से पढमट्टिदिसंभवेण पढमविदियटिदिसमूहारद्धस्स दिविसंतस्स तत्थ तप्पमाणत्तोवलंभावो। ण सेसाणं संगहकिट्टोणं, तासि पढमटिदिसंभवाभावेण अंतोमुहत्तूणटुवस्समेत्तविदियट्रिदीए चेव गहणे कोरमाणे संपुण्ण?वस्समेत्तट्टिदिसंतकम्मपमाणाणुवलंभावो त्ति ? ण एस दोसो; वेदिज्जमाणकोहसंजलणपढमसंगहकिट्टीए पढमद्विविपढमसमए वट्टमाणस्स सेससंगहकिट्टीणं पि तत्तो पहुडि जाव विवियढिविचरिमसमयो ति संपुण्णटुवस्समेत्तटिविसंतकम्मसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो। ण च णिसेगसुण्णाणमंतरदिदीणमेत्य द्विवित्तासंभवो, कालपहाणत्तावलंवणे तासि पि तदंतभाववंसणावो। * यदि क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकणिपर चढ़कर कृष्टियोंका वेदन करता है तब प्रथम समय में वेदन करनेवाले उसके मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म आठ वर्षप्रमाण होता है। ६२५४. क्रोधके उदयसे जो क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता है प्रथम समयमें कृष्टियोंका वेदन करनेवाले उस जीवके विद्यमान मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण आठ वर्षमात्र होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । यह कालका निर्देश चारों ही संज्वलनासम्बन्धी सभी संग्रहकृष्टियोंको प्रथम और द्वितीय स्थितिको मिलाकर आठ वर्षप्रमाण होता है ऐसा यहाँ प्रहण करना चाहिए। शंका-क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका यह कालनिर्देश भले ही होवे, क्योंकि वेद्यमान उसकी प्रथम स्थिति सम्भव होनेसे प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिके समूहसे आरम्भ किये गये स्थितिसत्कर्मको वहाँपर तत्प्रमाण स्थिति उपलब्ध होती है, शेष संग्रह कृष्टियोंकी यह स्थिति नहीं हो सकती, क्योंकि उनको प्रथम स्थिति सम्भव नहीं होनेसे अन्तर्मुसूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण द्वित्तीय स्थितिके ही ग्रहण करनेपर उनकी सम्पूर्ण आठ वर्षप्रमाणमात्र स्थितिसत्कर्मका प्रमाण नहीं उपलब्ध होता? . समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनकी वेद्यमान प्रथम संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिके प्रथम समयमें विद्यमान हुए जीवके शेष संग्रह कृष्टियोंकी भी उस समयसे लेकर द्वितीय स्थितिसत्कर्मके अन्तिम समयतक सम्पूर्ण आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको सिद्धि बिना बाधाके पाई जाती है। और निषेकोंसे शून्य अन्तर स्थितियोंका स्थितिपना यहाँपर असम्भव नहीं है, क्योंकि कालकी प्रधानताका अवलम्बन करनेपर निषेकोंसे शून्य अन्तर स्थितियोंका भी उस काल में अन्तर्भाव देखा जाता है। विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि जिस समय जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उस संग्रह कृष्टिको प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, शेष संग्रह कृष्टियोंको प्रथम स्थिति नहीं होता। अतः यहाँ शंकाकारका यह कहना है कि जिस समय यह जीव क्रोष संज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन प्रारम्भ करता है उस समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी प्रथम स्थिति न होनेसे उनका स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्षप्रमाण कहना चाहिए। इसका समाधान यह है कि यहाँपर कालप्रधान स्थितिसत्कर्मका निर्देश किया गया है, निषेकप्रधान स्थिति
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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