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________________ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे २५५. जदिवि सुत्तें दव्वद्वियणयमस्सियूण 'मोहणीयस्स द्विदिसंतकम्' इदि सामण्णणिसो कदो तो वि चण्हं संजलणाणं संगहकिट्टीभेदेण पादेवकं तिधाविभिण्णाणमेसो कालणिद्दे सो जोजेयव्वो, सामण्णणिद्देसेण सव्वेसिमेव विसेसाणं संगहेविरोहादो । 'संगृहीताशेषविशेषलक्षणं सामान्यं' इति वचनात् । * माणेण उवदिस्स पढमसमय किट्टीवेदगस्स ट्ठिदिसंत कम्मं चत्तारि वस्साणि । ९६ $ २५६. कोहेण उवद्विदो जम्हि उद्देसे कोहकिट्टिओ वेदेदि तम्हि उद्देसे माणोदयवखवगो तिन्हं संजलणाणं किट्टीकारगो होतॄण पुणो कोहोदयक्खवगो जम्हि उद्देसे माणकिट्टीओ वेदेदुमाढवेदितहि चेव उद्देसे पढमसमय किट्टी वेदगो होदि । तत्थ द्विदिसंतकम्मपमाणं तिन्हं संजलगाणं संपुष्णचत्तारिवसमेतं होइ त्ति सुत्तत्थसंगहो । * मायाए उवदिस्स पढमसमय किडीवेदगस्स वेवस्साणि मोहणीयस्स द्विदितम् । सत्कर्मका निर्देश नहीं किया गया है, अतः द्वितीय स्थितिके कालमें अन्तर स्थितियोंका काल सम्मिलित हो जाने से शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके स्थितिसत्कर्मका काल भी पूरा आठ वर्षप्रमाण बन जाता है । यहाँ यह शंका निषेकस्थितिको ध्यान में रखकर की गई है। कारण कि प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन प्रारम्भ करते समय शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके अन्तरायामप्रमाण निषेक नहीं होते, इसलिए शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंको आठ वर्षप्रमाण स्थिति मेंसे अन्त मुंहर्तप्रमाण स्थिति कम हो जानी चाहिए। यह शंकाकारका कहना है, किन्तु सभी संग्रह कृष्टियोंके द्वितीय स्थितिसम्बन्धी जो उपरितन निषेक हैं वे कितने काल प्रमाण स्थितिको लिये हुए है इसका यदि विचार किया जाता तो क्रोध की प्रथम संग्रह कृष्टिके उदयके प्रथम समय में वह उनका स्थितिकाल पूरे आठ वर्षं प्रमाण प्राप्त होता है, कारण कि अन्तरायामका अन्तर्मुहूर्त काल उसमें सम्मि लित है ही । इसलिए यहाँ सभी संग्रह कृष्टियोंका का पूरा आठ वर्षप्रमाण कहा है। $ २५५. यद्यपि सूत्र में द्रव्यार्थिकनयका आलम्बन लेकर 'मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म' ऐसा सामान्य निर्देश किया है तो भी चार संज्वलनों सम्बन्धी संग्रह कृष्टियोंके भेदसे प्रत्येक तीन भेदों को प्राप्त हुई संग्रह कृष्टियोंका यह काल निर्देश योजित करना चाहिए, क्योंकि सामान्य निर्देश करने से सभी विशेषोंका संग्रह हो जाता है इसमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि जिसमें अशेष विशेषों का संग्रह होता है वह सामान्यका लक्षण है ऐसा वचन है । * मानसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए कृष्टिवेदक जीवके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म चार वर्षप्रमाण होता है । $ २५६. क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हम जीव जिस स्थानपर क्रोधसम्बन्धी कृष्टियों का वेदन करता है उस स्थानपर मानसंज्वलन के उदयवाला क्षपक जीव मानादि तीन संज्वलनोंकी कृष्टियोंको करनेवाला होकर पुनः क्रोधसंज्वलन के उदयवाला क्षपक जीव जिस स्थानपर मानसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंके वेदनका आरम्भ करता है उसी स्थानपर यह जीव प्रथम समयवर्ती मानकृष्टिका वेदक होता है। इस प्रकार वहाँपर तीनों संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्मका प्रमाण पूरा चार वर्षं प्रमाण होता है । * मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए प्रथम समयवर्ती कृष्टि वेदकके मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म दो वर्षप्रमाण होता है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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