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________________ खवगढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे पढमभासगाहा ६ २५७. कोहेण उवद्विदो जम्हि उद्देसे माणकिट्टोओ वेदेदि तम्हि मायोदयवखवगो दोन्हं संजणाणं किट्टीकारगो होदूण पुणो कोथोदयक्वत्रगस्स मायावेदग पढनसमये चैव मायाकिट्टीओ ओडियण पढसमय किट्टोवेदगो होदि । तत्थ दोन्हं संजलणाणं द्विदिसंतकम्मपमाणं संपुण्गदोवस्समेत्तं होइ त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । * लोभेण उवदिस्स पढमसमय किडीवेदगस्स मोहणीयस्प डिदिसंतकम्ममेक वस्सं । $ २५८. कोहेण उवट्टिदो जम्हि उद्देसे मायाकिट्टीओ वेदेदि तम्हि उद्देसे लोभोदयraant लोभसंजणस्स तिष्णि संगह किट्टीओ काढूण पुणो कोहोदयक्खवगस्स लोभकिट्टी वेदगावत्थाए चैव लोभfट्टीओ ओकडेमाणो पढमसमय किट्टोवेदगभावेण परिणमइ । ९७ $ २५७. क्रोध संज्वलनकें उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मानसंज्वलनकी कृष्टियों का वेदन करता है उस स्थानपर मायासंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुआ जीव मायादि दो संज्वलनोंका कृष्टिकारक होकर पुनः क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ क्षपक जीव मायासंज्वलनके वेदन करनेके प्रथम समय में हो मायासंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियोंका अपकर्षण करके प्रथम समयवर्ती मायाकृष्टिका वेदक होता है। वहांपर दोनों संज्वलनोंके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण पूरा दो वर्षमात्र होता है । यह यहाँपर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । विशेषार्थ - क्रोध या मानसंज्वलन के उदयमे क्षपकश्रेणिवर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके उसका प्रथम समय में वेदक होता है, मायासंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव भी उसी स्थानपर मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके उसका प्रथम समय में वेदक होता है इस तथ्यको ध्यान में रखकर हो चूर्णिसूत्र के साथ उसकी टीकाकी संगति बिठा लेनी चाहिए, क्योंकि चाहे क्रोध के उदयसे श्रेणिपर चढ़े, चाहे मानके उदयसे श्रेणिपर चढ़े और चाहे मायाके उदयसे श्रेणिपर चढ़े इन तीनोंके मायासंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन एक ही कालमें प्राप्त होता है । * लोभसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक के मोहनीयकर्मका स्थितिसत्क में एक वर्षप्रमाण होता है । § २५४. क्रोधसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव जिस स्थानपर मायाकृष्टियोंका वेदन करता है उस स्थानपर लोभसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलनकी तीन संग्रह कृष्टियों को करके पुनः क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलन की कृष्टियों के वेदन करनेकी अवस्था में ही लोभसंज्वलनसम्बन्धी कृष्टियों का अपकर्षण करते हुए प्रथम समय में कृष्टियोंके वेदकपनेसे परिणत होता है । विशेषार्थं - कोई जीव क्रोधसंज्वलनके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है और कोई जव मान, माया और लोभसंज्वलनमें से किसी एकके उदयसे श्रेणिपर आरोहण करता है । यहाँ यह बतलाया गया है कि कोई एक जीव क्रोधसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है और कोई दूसरा जीव लोभसंज्वलन के उदयसे श्रेणिपर चढ़ा है । उनमें से पहला जीव जिस स्थानपर मायासंज्वलनकी संग्रह कृष्टियोंका अपकर्षण करके उसका वेदन करते हुए लोभसंज्वलनकी तोन संग्रह कृष्टियों का कारक होता हैं उसी स्थानपर लोभसंज्वलन से श्रेणपर चढ़ा हुआ जीव लोभसंज्वलनको तीन संग्रह कृष्टियों का कारक होता है । और इस प्रकार भले ही यहांपर क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी मुख्यता से कथन किया गया हो, फिर भी किसी भो कषायके उदयसे श्रेणिपर १३
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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