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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ २५९ तत्थ द्विदिसंतकम्मपमाणमेवं सुत्तुवइटुमवहारेयध्वं तदवत्थाएं संपुण्णे गवरसमेत्तद्विविसंतकम्मं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो । एवं पढमभासगाहाए अत्यविहासा समत्ता । संपहि विदियभासगाहाए अत्यविहासणं कुणमाणो तिस्से समुक्कित्तणट्ठमिदमाह - * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ९८ ६२६०. सुगमं । (१३४) जं किट्टि वेदयदे जवमज्झं सांतरं दुसु द्विदीसु । पढमा जं गुणसेढी उत्तरसेढी य विदिया दु ॥ १७७॥ २६१. एसा विविधभासगाहा किट्टोवेदगस्स पढमविदियट्ठिदीसु पवेसग्गस्स समवद्वाणंमेवीए सेढोए होदि ति पप्पायणटुमागदा । ण च एवंविहो अत्थणिद्देसो मूलगाहाए णत्थि त्ति आसंणिज्जं, किट्टीणं कालपरूवणावसरे तव्विसेसिव पदेसग्गस्स वि पडवणाए दोसानुवलंभावो । संहि एविस्से विदियभासगाहाए अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा - अवेदिज्ज माणाणं संगहकिट्टीणं विदियट्ठिदीए चेत्र एयगोकुच्छायारेण समवद्वाणादो । तत्थ दिस्समानपदेसग्गस्स से ढपरूवणा. सुगमा । तदो जं किट्टि वेदयवे तिस्से पढम-विदियट्टि दिभेदसंभवादो तव्विसए पदेसरगस्स सेढिपवणं कसामो त्ति जाणावणहूं 'जं किट्टि वेदयदे' इदि पढमो सुतावयवो । तत्थ पदेसग्गस्स जव मज्झ सवेण समवाणं होदि, जाण्णहा त्ति जाणावणटुं 'जवमज्झं' - इदि सुत्तस्स विदियाचढ़ा हुआ जीव क्यों न हो उन सबके लोभसंज्वलनको संग्रह कृष्टियोंके वेदनका एक काल प्राप्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ २५९. वहां पर स्थितिसत्कर्मके प्रमाणका सूत्रमें कहे गयेके अनुसार इस प्रकार अवधारण करना चाहिए, क्योंकि उस अवस्था में पूरे एक वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई । अब दूसरी भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा करते हुए उसकी समुत्कीर्तना करने के लिए इस सूत्र को कहते हैं * यह दूसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना है । ६ २६०. यह सूत्र सुगम है । (१३४) यह क्षपक जीव जिस कृष्टिका वेदन करता है उसका सान्तर यवमध्य सहित दोनों स्थितियों में अवस्थान होता है। उनमेंसे जो प्रथम स्थिति है वह गुणश्रेणिरूप है । परन्तु द्वितीय स्थिति उत्तरश्रेणि अर्थात् हीयमान श्रेणिरूप है । $ २६१. कृष्टिवेदक के प्रथम और द्वितीय स्थिति में प्रदेशपुंजका अवस्थान इस श्रेणिरूप से होता है इस बातका कथन करनेके लिए यह दूसरी गाथा आयी है । और इस प्रकारके अर्थका निर्देश मूल गाथा में नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कृष्टियोंके कालसम्बन्धो प्ररूपणा के अवसरपर कृष्टियोंके कालसे युक्त प्रदेशपुंजकी भी प्ररूपणा कर आये हैं, इसलिए उक्त - कथन में कोई दोष नहीं है । अब इस दूसरी भाष्यगाथाके अवयत्रोंके अर्थकी प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे - अवेद्यमान संग्रह कृष्टियोंका द्वितीय स्थिति में हो एक गोपुच्छा के आकारसे अवस्थान होता है । इसलिए उनके दृश्यमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा सुगम है। इस कारण जिस कृष्टिका वेदन करता है उसकी प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति सम्भव होनेसे तद्विषयक प्रदेशपुंजकीणप्ररूपणा करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'जं किट्टि वेदयदे' मूल गाथासूत्रका यह प्रथम अवयव कहा है । उस कृष्टिके प्रदेशपुंजका यवमध्यरूपसे अवस्थान होता है, अन्य प्रकारसे नहीं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उक्त मूल गाथासूत्र के 'जवमज्झं' इस दूसरे अवयवका निर्देश
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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