SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहाए तदियत्थे विदियभासगाहा वयवणिद्देसो। तं च जवमझं पढम-विदियट्टिवीसु वट्टमाणमंतरटिदीहिं अंतरिदत्तादो सांतरमिदि जाणावणटुं 'सांतरं दुसु दिदीसु' ति सुत्तस्स तवियावयवणिद्देसो। एदस्स भावत्थो २६२. पढमाटुदीए आदिमाढदिम्हि पदेसग्गं थोवं होदूण पुणो जहाकममसंखेज्जगुणाए सेढोए जाव पढमट्टिदिचरिमसमओ त्ति ताव वडिदूण तदो अंतरमुल्लंघियूण विदियट्टिवीए पढमणिसेयम्मि असंखेज्जगणवडीए सई वडिदण तत्तो परं सव्वत्थेव विसेसहाणीए गंतण परिसमप्पदि त्ति एदेण कारणेण दोसु टिदिविसेसेसु पदेसग्गस्साणंतरमेदं जवमझं होदि, अंतरस्स उभयपेरंतेसु थूलं होदूण दोसु द्विदिविसेसेसु जहाकमेण पदेसग्गस समयाविरोहेण परिहाणिदसणादो त्ति। ६२६३. संपहि एदस्सेव जवमज्झसण्णिवेसस्स फुडीकरणटुं गाहापच्छद्धणिद्देसो 'पढमा जं गुणसेढी' 'पढमाए' पढमट्टिदो 'ज' जम्हा 'गुणसेढो' गुणसेढिसरूवा होदूण चरिमट्टिदीए थूला जादा। 'उत्तरसेढी य विविया दु' विवियट्टिवीए जम्हा मूले थूला होदूण उत्तरसेढीए हीयमाणा गच्छवि, तम्हा बोण्हमेदेसि टिवीणं चरिम-पढमट्टिदीसु सांतरमेदं जवमझमवहारेयव्वमिवि वुत्तं होइ। किया है। और वह यवमध्य प्रथम और द्वितीय स्थितिमें विद्यमान होकर अन्तर स्थितियोंसे अन्तरित होकर अन्तर सहित होता है, इसलिए उसके अन्तर सहितपनेका ज्ञान करानेके लिए 'सांतरं दुसु ट्ठिदोसु' इस प्रकार गाथासूत्रके इस तीसरे अवयवका निर्देश किया है । इसका भावार्थ इस प्रकार है 5२६२. प्रथम स्थितिकी सबसे पहली स्थितिमें प्रदेशपुंज सबसे थोड़ा होकर पुनः जो क्रम है उसके अनुसार असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक बढ़कर, पश्चात् अन्तरका उल्लंघन करके द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकमें एक बार असं श्रेणिरूपसे बढ़कर तत्पश्चात् आगे सभी स्थितियोंमें विशेष हानिरूपसे जाकर समाप्त होता है। इस कारण दो स्थितिविशेषोंमें प्रदेशपुंजका अनन्तर कहा गया यह यवमध्य होता है, क्योंकि अन्तरके उभय पर्यन्त भागोंमें यवमध्य स्थूल होकर दोनों स्थितिविशेषों में क्रमानुसार प्रदेशपुंजकी आगमके अविरोधपूर्वक हानि देखा जाती है। ६२६३. अब इसी यवमध्यकी रचनाको स्पष्ट करनेके लिए मूल गाथाके उत्तरार्धका निर्देश किया है-'पढमा जं गुणसेढी' इस सूत्रका अर्थ है 'पढभाप' का अर्थ है प्रथम स्थिति, 'ज' पदका अर्थ है जिसकी ओर 'गुणसेढो' पदका अर्थ है गुणश्रोणि अर्थात् प्रथम स्थिति गुणश्रेणिस्वरूप होकर अन्तिम स्थितिम स्थल हो गयी है। 'उत्तरसेढा य विदिया द' अर्थात द्वितीय स्थिति यतः मूलमें स्थूल होकर आगे श्रणिरूपसे हायमान होकर जाती है, इस कारण इन दोनों स्थितियोंकी अन्तिम और प्रथम स्थितिके मध्य सान्तर होकर यह यवमध्य जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-यहाँपर कृष्टियोंके वेदनकालके समय जिस समय जिस कृष्टिका वेदन करता है उस समय उसका प्रदेशविन्यास किस प्रकारका दिखाई देता है। इसी तथ्यका यहां स्पष्टीकरण किया गया है । ऐसा नियम है कि जिस कृष्टिका वेदन करता है उसकी अन्तर साहत प्रथम और द्वितीय स्थिति होती है । प्रथम स्थिति उदयरूप निषेकसे लेकर अन्तर्मुहुर्तप्रमाण होता है। उसक बाद उस कृष्टिके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण निषेक अन्तररूप होते हैं। अर्थात् प्रथम स्थिातक अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण निषेकोंके ऊपर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण निषेकोंका अभाव होता है। पुनः उसके बाद जितनी उस कृष्टिकी स्थिति हो वहाँ तक द्वितीय स्थितिके निषेक अवस्थित रहत हैं। यह तो स्थितिकी अपेक्षा विवक्षित कृष्टिके निषेकोंकी रचनाका क्रम है। अब विवक्षित कृष्टिके उदयके समय उस प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिमें स्थित प्रदेश पुंजकी रचना किस प्रकार दिखाई देतो
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy