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________________ खवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा किट्टिमभंतरे एदाणि अभयणिज्जसहवेणोवइट्ठाणि पुव्वबद्धाणि णियमा अस्थि त्ति भणिदं होइ । अधवा सव्वास किट्टीस जे अणुभागा अविभागपडिच्छेदसरूवा तेसु सम्वेसु चेव सरिसणियभावेण अभयणिज्जा पुग्वबद्धकम्मपदेसा अस्थि त्ति सुत्तत्थो गहेयम्वो। एदेणेव सुत्तेण देसामासयभावेण' भयणिज्जाणं पि कम्मपदेसाणं संभवपक्खे एगादिएगुत्तरकमेणं सव्वेसु द्विविविसेसेसु सव्वेस चाणुभागेसु सम्बासु च किट्टीस समवट्ठाणसंभवो अणुमग्गियठवो, विरोहाभावादो। 5 ३९४. संपहि एवंविहमेविस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ* विहासा । 5३९५. सुगमं। * जाणि अभजाणि पुव्यवद्धाणि ताणि णियमा सव्वेसु द्विदिविसेसेसु णियमा सव्वासु किट्टीसु । 5 ३९६. गयत्यमेदं सुत्तं । एवं छठुमूलगाहाए अत्यविहासा समत्ता । एममैत्तिएण पबंधेण लेकर क्रोधसंज्वलनको सबसे उत्कृष्ट कृष्टि तकको सब कृष्टियोंसम्बन्धी सदृश धनवाली कृष्टियोंके भोतर ये अभजनीय स्वरूप कहे गये पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा सब कृष्टियोंमें जो अनुभाग अविभागप्रतिच्छेदस्वरूपसे विद्यमान हैं उन सबमें ही सदृशधनरूपसे अभजनीय पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्रका अर्थ ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी सूत्रसे देशमार्षकभावसे भजनीय कर्मप्रदेशोंका भी, सम्भव पक्षके स्वीकार करनेपर एक परमाणुसे लेकर एक-एक अधिक परमाणु क्रमसे, सब स्थितिविशेषोंमें सब अनुभागोंमें और सब कृष्टियोंमें अवस्थान सम्भव है यह मार्गणा कर लेनी चाहिए, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। विशेषार्थ-जिस मार्गणा आदि सम्बन्धी पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय है वे तो सभी कृष्टियोंमें पाये जाते हैं। अथवा सभी कृष्टियों में अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप जो अनुभाग पाया जाता है उन सबमें सदृश धनरूप अनुभागवाले अभनीय कर्मप्रदेश नियमसे पाये जाते हैं ऐसा इस सूत्रका अर्थ करना चाहिए। साथ ही जो पूर्वबद्ध कर्मप्रदेश भजनीयरूपसे इस क्षपकके पाये जाते हैं उनका सम्भव पक्षमें कमसे कम एक परमाणु और अधिकसे अधिक अनन्त परमाणु इस क्षपकके पाये जाते हैं। इसलिए उनका भी सब स्थितियों, सब अनुभागों और सब कृष्टियोंमें होनेका इसी विधिसे विचार कर लेना चाहिए। ६३९४. अब इस गाथाके इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अब इस दूसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। $ ३९५. यह सूत्र सुगम है। * जो पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं वे स्थितिके सब भेवोंमें और सब कृष्टियों में नियमसे पाये जाते हैं। 5 ३९६. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार छठी मूलगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। इस १. ता. प्रती देसामासयेण इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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