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________________ जयपवला सहिदे कसायपाहुडे $ ३९२. एसा विदियभासगाहा 'कदीसु किट्टीसु च द्विवीसु' त्ति चउत्यमूलगाहाए चरिमावमस्तियूण तोहि मुलगाहाहिं समद्दिद्वाणमभयणिज्जाणं पूव्वबद्धाणं कम्मपदेसाणं द्विदि- अणुभागेस अवाक्कम जाणवणटुमोइण्णा । तं जहा - 'एदाणि पुण्यबद्धाणि' जाणि इमाणि वद्धाणि अभय णिज्जसरुवाणि तीसु मूलगाहासु समद्दिद्वाणि ताणि 'जियमसा' णिच्छयेणैव सम्सुद्विविविसेसेस दट्टव्वाणि सव्वेंस कम्माणं जहष्ण द्विविमादि काढूण जावुक्कस्सट्रिवित्ति सिमवाणदंसणा दो । 'सवेसु च अणुभागेसु' त्ति भणिदे चदुण्हं संजलणाणं सव्वसरिसघणिय किट्टीणं गहणं काय | (૪ ६ ३९३. 'सव्यकिट्टीस' त्ति भणिदें सव्वासि संगह किट्टीणमवयवकिद्रोणं च एगोलीए गहणं काव्यं । तेण कोहादिसंजलणाणमेव के विकस्से किट्टीए अनंतेसु सरिसघणिय किट्टीस संभवंतीसु तत्य लोभसव्वजण किट्टिमादि काढूण जाव कोघुक्कस्सकिट्टि त्ति ताव सम्बकिट्टीणं सरिसधणिय ६ ३९२. यह दूसरो भाष्यगाथा 'कदीसु किट्रोस च द्विदोस्' इस चौथी मूलगाथाके अन्तिम चरणका अवलम्बन करके तीन मूलगाथाओं द्वारा निर्दिष्ट किये गये अभजनीय पूर्वबद्ध कर्म - प्रदेशोंके स्थिति और अनुभागों में अवस्थानक्रमका ज्ञान करानेके लिए अवतीर्णं हई है । वह जैसे— 'एदाणि पुत्रबद्धाणि' अर्थात् जो ये पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके तीन मुलगाथाओं में अभजनीय कहे गये हैं उन्हें 'णियमसा' निश्चयसे हो इस क्षपकके सब स्थितिविशेषों में जानना चाहिए, क्योंकि सभी कर्मोंकी जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक स्थितिके सभी भेदोंमें उनका अवस्थान देखा जाता है । 'सव्वेसु च अणुभागेसु' ऐसा कहनेपर चारों संज्वलनोंकी सदृश धनवाली सभी कृष्टियोंका ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ - - यहाँ 'सब स्थिति' ऐसा कहनेसे प्रथम और द्वितीय स्थितिका ग्रहण किया गया है, क्योंकि जब जिस कषायका उदय रहता है तब उसको प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति नियमसे होती है। अतः जितने भी पर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं वे इस क्षपकके प्रत्येक कषायकी सभी सम्भव स्थितियोंमें पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । तथा इस क्षपक के कृष्टिकरणको क्रिया सम्पन्न होनेपर जितना भी सम्भव संज्वलन कषायोंका अन्भाग अवशिष्ट रहता है वह इस क्षपकके कृष्टिरूपमें हो पाया जाता है। यही कारण है कि यहांपर 'सव्वेसु च अणुभागेसु' इस पदका स्पष्टीकरण करते हुए उसे सदृश धनवाली कृष्टियोंस्वरूप ही कहा गया है। तात्पर्य यह है कि पूर्वबद्ध कर्मोंका अभजनीयस्त्ररूपसे जो अनुभाग अवशिष्ट रहता है वह इस क्षपकके सम्भव सभी कृष्टियों में पाया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ सर्वत्र इतना विशेष जानना चाहिए कि प्रकृतमें क्रोष संज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ जीव विवक्षित हुआ है, इसलिए १२ ही संग्रह कृष्टियां और उनकी अन्तर कृष्टियां पायी जाती हैं । किन्तु यदि कोष संज्वलनको छोड़कर मानादि किसी एक कषायके हृदयसे क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुआ जीव विवक्षित हो तो उसको अपेक्षा उस क्षपकके जितनी संग्रह और अन्तर कृष्टियों सम्भव हों उस अपेक्षासे निर्णय लेना चाहिए । यहाँ जो यह विशेष सूचना की गयी है वह इस क्षपकके पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीय स्वरूपसे विचार करते समय सर्वत्र समझ लेनी चाहिए। ६ ३९३. 'सव्वकिट्टीसु' ऐसा कहनेपर सब संग्रह कृष्टियोंका और उनको अवयव कृष्टियोंका एक पंक्तिरूपसे ग्रहण करना चाहिए। इससे क्रोधादि संज्वलनों सम्बन्धी एक-एक कृष्टिकी अनन्त सदृश धनवाली कृष्टियां सम्भव होनेपर उनमें लोभ संज्वलनकी सबसे जघन्य कृष्टि
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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