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________________ खवगसेढोए छट्ठमूलगाहाए विदियभासगाहा संभावणियमवंसणावो । तिरियलोयसंचयो पुण सुद्धो वि लम्भइ, कम्मद्विविमेत्तकालं तिरियलोगे चेव अच्छियूण पुणो मणुसपज्जाए पडिलंभेण कम्मक्खयं कुणमाणस्स परिप्फुडमेव तदुवलंभादो। ण एत्थ मणुसगदिसंचयस्स तत्तो पुधमूवस्स संभवो आसंकणिज्जो; माणुसखेत्तस्स वि तिरियलोगंतब्भूवत्तणेण तत्तो पुधभूदाणुवलंभावो। ३८९. संपहि 'समाविभागे अभज्जाणि' ति एवं सुत्तावयवमस्सियूण कालविभागे पुव्वबद्धाणं भयणिज्जाभयणिज्जभावगवेसणं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * भोसप्पिणीए च उस्सप्पिणीए च सुद्धं पत्थि । ३३९०. कुदो? कम्मढिदिअभंतरे दोण्हमेदासि परावत्तणणियमदंसणादो । तदो ओसप्पिणिउस्सप्पिणिसंचओ अण्णोण्णसम्मिस्सो चेव होणेदस्स खवगस्स लब्भइ, ण सुद्धसरूवो त्ति एसो एबस्स सुत्तस्स भावत्थो। एवमेत्तिएण पबंधेण पढमभासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए विदियभासगाहाए बिहासणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * एत्तो विदियाए भासगाहाए समुक्कित्तणा । 5 ३९१. सुगमं। (१४०) एदाणि पुत्ववद्वाणि होति सव्वेसु द्विदिविसेसेसु । सव्वेसु चाणुभागेसु णियमसा सव्वकिट्टीसु ॥१९३॥ वह मनुष्यपर्यायसम्बन्धी संचित कर्मद्रव्य है जो कि अवश्यंभावी होनेसे उस क्षपकके नियमसे पाया जाता है। परन्तु तिर्यग्लोकमें हुआ संचय इस क्षपकके शुद्ध भी पाया जाता है, क्योंकि कर्मस्थिति काल तक तिर्यग्लोकमें ही रहकर पुनः मनुष्यपर्यायके प्राप्त हो जानेसे कर्मक्षय करनेवाले जीवके स्पष्टरूपसे ही कर्मस्थितिके भीतर हुआ संचय पाया जाता है। यहां मनुष्यगति सम्बन्धी संचय उससे पृथग्भूत सम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि मनुष्यक्षेत्र भी तियंग्डोकके अन्तर्भूत है, इसलिए यह उससे पृथक् उपलब्ध नहीं होता। ३८९. अब 'समाविभागे अभज्जाणि' इस सूत्रावयवका आश्रय कर कालके विभागोंमें पूर्वबद्ध कर्मोके भजनीय और अभजनीयपनेकी गवेषणा करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * अवसर्पिणी में और उत्सपिणीमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके शुद्ध नहीं पाया जाता। 5 ३९०. क्योंकि कर्मस्थितिके भीतर इन दोनों कालोंके परावर्तनका नियम देखा जाता है, इसलिए अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालके भीतर परस्पर मिलित होकर ही इस क्षपकके प्राप्त . शवस्वरूप होकर प्राप्त नहीं होता यह इस सत्रका भावार्थ है। इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा प्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा सम्पन्न करके अब यथावसरप्राप्त दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * यह दूसरी भाष्यगाथा समत्कीर्तना है। ६३९१. यह सूत्र सुगम है। (१४०) ये पूर्वबद्ध कर्म स्थितिके सब भेदोंमें, सब अनुभागोंमें और सब कृष्टियोंमें नियमसे पाये जाते हैं ॥१९३॥ होता है. शव
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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