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________________ खवगसेढीए बज्झमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुवकिट्टीणं परूवणा २५६ * तदियाए विसेसहीणमणंतभागेण । * चउत्थीए विसेसहीणं । * एवमणंतरोवणिधाए ताव विसेसहीणं जाव अपुव्वकिट्टिमपत्तो त्ति । ६६३५. एदस्स सुत्तस्सत्थो वुच्चदे। तं जहा-चउण्हं पढमसंगहकिट्टीणं हेट्टिमोवरिमासंखेज्जविभागं मोरण सेसासेसमज्झिमकिट्टीसरुवेण पयट्टमाणो णवकबंधाणुभागो पुवकिट्टीसरूवो वि अस्थि, अपुवक्ट्टिीसरूवो वि। तत्थ पुवकिट्टीसु णिसिंचमाणपदेसागं णवक बंधसमयपबद्ध. स्साणंतिमभागमेत्तं होदि। सेसा अणंता भागा अपुवकिट्टिसरूवेण णिसिचंति । तदो णवकबंध. समयपबद्धस्साणंतभागे पुध ठविय तदणंतिमभागं घेण पुन्वकिट्टीसु बंधजहण्णमादि कादूण णिसिंघमाणो तत्थ जा बंधजहण किट्टी तिस्से उवरि बहुअं पदेसग्गं देदि । णवकबंधसमयपबद्धस्साणंतिमभागे किट्टीअद्धाणेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तदश्वमणंतभागन्भहियं कादूण णिरुद्धजहण्ण. किट्टीए णिसिंचदि त्ति वुत्तं होदि । तत्तो विदियाए किट्टीए विसेसहीणं देदि । केत्तियमेण ? अणंतिमभागमेत्तेण । बंधजहण्णकिट्टीए णिसित्तपदेसगं णिसेयभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण विसेसहीणं कादूण विदियकिट्टीए पदेसग्गमेसो णिसिदि। अण्णहा गोवुच्छायाराणुप्पत्तीदो त्ति भावत्थो। एवमेदेण कमेण तदियचउत्थादिकिट्टीसु वि अणंतभागहीणं काढूण णेदव्वं जाव असंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि उल्लंघियूण तम्मि अंतरे णिव्वत्तिज्जमाणापुवकिट्टीवो * तीसरी कृष्टिमें अनन्तवा भाग विशेष हीन देता है। * चौथी कृष्टि में विशेष हीन देता है। * इस प्रकार अनन्तरोपनिधाकी विधिके अनुसार श्रेणिरूपसे अपूर्व कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन-विशेष हीन प्रदेशपुंज देता है। ६६३५. अब इसका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-चारों प्रथम संग्रह कृष्टियोंके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर शेष समस्त मध्यम कृष्टिरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धसम्बन्धी अनुभाग पूर्व कृष्टिस्वरूप भी होता है और अपूर्व कृष्टिस्वरूप भी होता है। उसमें पूर्व कृष्टियोंमें सिंचित होनेवाला प्रदेशपुंज नवबन्धसम्बन्धी समयप्रबद्धके अनन्तवें भागप्रमाण होता है। शेष अनन्त बहुभागको अपूर्व कृष्टिरूपसे सिंचित करता है। इसलिए नवकबन्ध समयप्रबद्धके अनन्त बहुभागको पृथक् स्थापित कर तथा उसके अनन्तवें भागको ग्रहण कर पूर्व कृष्टियोंमें बन्धसम्बन्धी जघन्य कृष्टिसे लेकर सिंचन करता हुआ जो बन्धसम्बन्धी जघन्य कृष्टि है उसमें बहुत प्रदेशपुंजको देता है । तथा नवकबन्ध-समयप्रबद्धके अनन्तवें भागके कृष्टि अध्वानके द्वारा खण्डित करनेपर वहां जो एक भागमात्र द्रव्यको अनन्तवा भाग अधिक करके विवक्षित जघन्य कृष्टिमें सिंचित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । पुनः उससे विशेष हीन दूसरी कृष्टिमें देता है। शंका-कियत्प्रमाण हीन देता है? समाधान-अनन्तवा भाग हीन देता है। अर्थात् बन्ध जघन्य कृष्टिमें सिंचित किये गये द्रव्यको निषेकभागहारसे खण्डित करके दूसरी कृष्टिमें प्रदेशपंजको वह सींचता है, अन्यथा गोपुच्छाकारको उत्पत्ति नहीं हो सकती यह इसका भावार्थ है। इस प्रकार इस क्रमसे तीसरी और चौथी आदि कृष्टियोंमें उत्तरोत्तर अनन्त भागहीनअनन्त भागहीन करके पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूगेको उल्लंघन कर उस अन्तरालमें
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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