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________________ २५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडै हेट्टिमाणंतरकिट्टि ति, एवम्मि अद्धाणे अणंतभागहाणि मोतूण पयारंतरासंभवादो। पुणो एवम्मि अंतरे दोण्हं पुवकिट्टोणमंतराले णिवत्तिज्जमाणपढमापुवकिट्टीए केरिसो पदेसणिसेगो होदि त्ति आसंकाए णिरारेगीकरण?मुत्तरसुत्तणिद्देसो * अपुवाए किट्टीए अणंतगुणं । ६६३६. कि कारणं? पुवमणिय दृध ट्रविदाणंतभागमेत्तदव्वे अपुवकिट्टोअद्धाणेण खंडिदे तत्थेयखंडमेत्तदव्वस्स हेट्ठिमाणंतरपुवकिट्टोए णिवदिवदव्वादों अणंतगुणस्स तत्थ णिवखेवदसणादो। एदस्स दव्वस्स ओवट्टणं ठविय सिस्साणमेत्य अत्थपडिबोहो कायव्वो। * अपुव्वादो किट्टीदो जा अणंतरकिट्टी तत्थ अणंतगुणहीणं। ६६३७. एस्थ वि कारणमणंतरपलविदमेव बटुव्वं । तदो पुवापुवकिट्टीसु एयगोवुच्छासंपायणटुं हेट्टिमोवरिमपुष्वकिट्टीसयलवघ्यावो अणंतभागेणहीणमहियं च कादूण णिसिंचमाणस्स मज्झिमापृव्यकिट्टीए णिसित्तपदेसग्गमणंतगुणं जावमिवि एसो एक्स्स भावत्यो । संपहि एत्तो उवरि सव्वस्थ अणंतरोवणिषाए अणंतभागहीणं पवेसणिक्खेवं कुणमाणो गच्छवि जाव असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण द्विवविवियापुठवकिट्टीए समणतरहेट्ठिमपुवकिट्टि ति, एवम्मि अखाणे अणंतभागहीणपवेसणिवखेवं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो ति इममत्थविसेसं पदुप्पायेमाणो सुत्तमुत्तरं भणहनिष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिसे अधस्तन अनन्तर कृष्टिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए, क्योंकि इस अध्वान में अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । पुनः इस अन्तराल में दो पूर्व कृष्टियोंके अन्तरालमें निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिमें प्रदेशनिषेक किस प्रकारका होता है ऐसी मशंका होनेपर नि:शंक करने के लिए आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं-- * अपूर्व कृष्टिमें अनन्तगुणे प्रवेशपुंजको निक्षिप्त करता है। ६६३६. शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-पहले निकालकर पृथक् रखे हुए अनन्त बहुभागमात्र द्रव्यको अपूर्व कृष्टिके मध्यानसे भाजित करनेपर वहाँ प्राप्त एक मात्र द्रव्य जो कि अधस्तन मनन्तर पूर्व कृष्टिमें निक्षिप्त प्रग्यसे मनन्तगुणा है-उसका उस अपूर्व जपन्य कृष्टिमें निक्षेप देखा जाता है। इस अध्यकी अपवतमा स्थापित करके यहाँ शिष्योंको बर्षका प्रतिबोध कराना चाहिए। * अपूर्व राष्टिले जो मनन्तर कष्ट है उसमें अनन्तगुणे होन अन्यको निक्षिप्त करता है। १६३७. यहाँपर भी ममन्तर महामाही कारण जानना चाहिए। अतः पूर्व और अपष्टियों में एक गोल्छाका सम्पादन करने के लिए मस्तान और उपरिम पूर्वष्टियों के समस्त प्रय श्रमम्तवें भागहीन व्यको अधिक करके सिधित करते हुए मध्यम अपूर्व इष्टिमें निमित प्रवेशाज ममन्तगुणा हो जाता है इस प्रकार यह इसका भावार्य है। अब इस मागे सर्वत्र मनम्तरोपनिषा कमसे मनात भागहीन प्रदेशजका निक्षेप करता मा पस्योपमो संख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण मध्यान (स्थान) ऊपर जाकर स्थित पूसरी अपूर्व कृष्टिके समानान्तर अपस्तन अपूर्व कृष्टि प्राप्त होने तक इस मध्याममै मनन्त भागहीन प्रदेशोंके निक्षेपको छोड़कर मन्य प्रकार सम्भवनहीं है इस प्रकार इस भविशेषका प्रतिपादन करते हुए मागके सूत्रको कहते
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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