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________________ खवगसेढीए संकामिज्जमाणपदेसग्गादो णिप्पज्जमाणापुत्वकिट्टोणं परूवणा २५५ * तदो पुणो अणंतभागहीणं । 5 ६३८. सुगमं। संपहि एत्तो परमपुज्वकिट्टीसरूवेणाणंतगुणं पदेसगं णिसिंचिय पुणो तदुवरिमपुवकिट्टीए अणंतगुणहीणं णिसिंचदि । तत्तो परमणंतभागहीणं जाव अण्णमपवकिट्टी ण पत्ता त्ति । पुणो अपवकिट्टीए पव्वं वा अणंतगुणं, तदो अणंतगुणहीणो, तत्तो परमणंतभागहीणमिदि एदेण कमेण उवरि सव्वत्थ णेदव्वमिदि जाणावणफलो उवरिमसुत्तारंभो * एवं सेसासु सव्वासु । .६६३९. पयत्यमेदं सुत्तं । एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण बंधेण णिव्वत्तिज्जमाणीणमपुवकिट्टीणं सरूवविणिण्णयं कादूण संपहि संकामिज्जमाणेण पदेसग्गेण कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणमवयवभावेण णिव्वत्तिज्जमाणाणमपुवकिट्टीणं परूवणं कुणमाणो सत्तपबंधमुत्तरं भणइ___* जाओ संकामिजमाणियादो पदेसग्गादो अपुवाओ किट्टीओ णिव्वत्तिजंति ताओ दुसु ओगासेसु । ६६४०. एत्थ संकामिज्जमाणपदेसग्गमिवि वृत्ते ओकडुणासंकमेण संकामिज्जमाणवश्वस्त गहणं कायव्वं; तस्सेव बध्वस्स संगहकिट्टीणं साहारणभावेण पहाणभावोवलंभावो । तेण संकामिज्जमाणएण पदेसग्गेण जाओ अपुवाओ किट्टीमो णिव्वत्तिजंति, ताओ बोसु ओगासेस तवनन्तर पुनः पूर्व कृष्टिमें अनन्त भागहीन प्रवेशपुंज निक्षिप्त करता है। ६६३८. यह सूत्र सुगम है। अब इससे आगे अपूर्व कृष्टिरूपसे अनन्तगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करके पुन: उससे आगेकी पूर्व कृष्टिमें अनन्त गुणहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। पुनः उससे आगे जबतक अन्य अपूर्व कृष्टि नहीं प्राप्त होती तबतक अनन्त भागहीन प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। पुन: अपूर्व कृष्टि में पहलेके समान अनन्तगुणा प्रदेशपुंज निक्षिप्त करके तवनन्तर पूर्व कृष्टिमें अनन्तगुणा हीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। फिर उससे आगे अनन्तमागहीन प्रदेशजका निक्षेप करता है। इस प्रकार इस क्रमसे मागे सर्वत्र ले जाना चाहिए इस प्रकारका शान कराना है फल जिसका ऐसे भागेके सूत्रका भारम्भ करते है कासी प्रकार बध्यमान सबष्टियों में जानना चाहिए। १६३९. यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार इतने सूत्र प्रबन्ध द्वारा बन्धसे निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टियोंके स्वरूपका निर्णय करके मब संक्रम्यमाण प्रवेशपुजसे क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकि अवयवरूपसे निष्पचमान अपूर्व कृष्टियोंका कथन करते हुए मागेके सूत्रप्रबम्पको कहते है समयमाण प्रदेशमसे मोमष्टिया मिपमती मोमबकाशों (अन्तराकों) में निपनती है। ४०. यहाँपर 'सकामिनमाणपसर्ग' ऐसा कहनेपर अपकर्षण संक्रमके द्वारा कम्पमाण पका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसी प्रम्पको संग्रह कृष्टियोंके साधारणपसे प्रधानता पायी जाती है। इसलिए संझम्पमाण प्रयापुनके द्वारा मोमपूर्व कमियां निपजती
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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