SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे णिवत्तिजंति ति सुत्तत्थसंबंधो। संपहि के ते दुवे ओगासा ति आसंकिय पुच्छावक्कमाह * तं जहा। ६६४१. सगमं। * किट्टीअंतरेसु च संगहकिट्टीअंतरेसु च । 5 ६४२. कोहपढमसंगहकिट्टि मोत्तूण सेसाणमेक्कारसण्हं. संगहकिट्टोणं हेढा तासिमसंखेज्जदिभागपमाणेण जाओ णिव्वत्तिज्जंति अपुवकिट्टीओ ताओ संगहकिट्टीअंतरेस त्ति भणंति । तासि चेव एक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं किट्टोअंतरेसु पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागमेत्तद्वाणं गंतूण अंतरंतरे जाओ अपुवकिट्टीओ णिव्वत्तिज्जति ताओ किट्टीअंतरेस त्ति वुच्चंति । वेदिज्जमाणकोहपढमसंगहकिट्टीए हेटा किट्टीअंतरेस वा सगपदेसग्गमोकड्डियूण अपुठवकिट्टीओ किण्ण कीरति ? ण, विणासिज्जमाणाए तिस्से तहाविहसंभवाणुवलंभादो। तम्हा तप्परिहारेण सेसाणमेक्कारसण्हमेव संगहकिट्टीणं संबंधेण संकामिज्जमाणयेण पदेसग्गेण अपुवाओ किट्टीओ णिवत्तेवित्ति भणिदं। * जाओ संगहकिट्टीअंतरेसु ताओ थोवाओ। ६४३. एदाओ पुवकिट्टीणमसंखेज्जविभागमेत्ताओ होदूण थोवाओ ति भणिबाओ। कि दो अन्तरालों में निपजती है ऐसा इस सूत्रके साथ गर्थका सम्बन्ध है। अब वे दो अन्तराल कौन हैं ऐसी आशंका करके पृच्छावाक्य कहते हैं * वह जैसे। ६ ६४१. यह सूत्र सुगम है। * वे संक्रम्यमाण अपूर्व कृष्टियाँ कृष्टि अन्तरालोंमें और संग्रह कृष्टि अन्तरालों में निपजती है। ६६४२. क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कष्टियोंके नीचे उनके असंख्यातवें भागप्रमाण जो अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें कही जाती हैं । और उन्हीं ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके कृष्टि-अन्तरालोंमें पल्योपमके असंख्यातवें पागप्रमाण स्थान जाकर प्रत्येक अन्तरमें अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे कृष्टि-अन्तरालों में कही जाती हैं। शंका-वेद्यमान क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे अथवा कृष्टि-अन्तरालोंमें अपने प्रदेशपंजका अपकर्षण करके अपूर्व कृष्टियोंको क्यों नहीं करता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि विनश्यमान उसमें उस प्रकारसे सम्भव नहीं है। इसलिए उसके परिहार द्वारा शेष ग्यारहों संग्रह कृष्टियोंके सम्बन्धसे संक्रम्यमाण प्रदेशपुंजसे अपूर्व कृष्टियोंको निपजाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालोंमें जो अपूर्व कृष्टियां निपजती हैं वे थोड़ी होती हैं। ६ ६४३. ये पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर थोड़ो कही गयी हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy