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________________ १३४ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे संगहो कायवो, मदि-सुदोवजोगत्तण भेदाभावादो। तदो एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि खवगस्स णियमा अत्थि त्ति घेत्तन्वं, एदेसिमुवजोगाणमेदस्स खवगस्स कम्मट्ठिदिअभंतरे णिच्छएण संभवदंसणादो। 'भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु०' एवं मणिदे छदुमत्थविसये जाणि पच्चक्खाणि अवहिमणपज्जवणाणाणि तेस पुश्वबद्धाणि भजियव्वाणि त्ति सुत्तत्थो, मवि-सुदणाणाणं व दोण्हमेदेसि खवगस्स पुवावस्थाए अवस्संभाविणियमाणुवलंभावो । एत्थ अवहिणागणिद्देसेणेव विहंगणाणस्स वि गहणं कायग्वं; तस्स वि तवंतब्भावतादो। संपहि एक्स्सेव फुडीकरण?मुवरिमं विहासागंथमाह * विहासा। 5 ३६४. सगमं। * सुदणाणे अण्णाणे मदिणाणे अण्णाणे एदेसु चदुसु उवजोगेसु पुन्धबद्धाणि णियमा अस्थि । * ओहिणाणे अण्णाणे मणपज्जवणाणे एदेसु तिसु उवजोगेसु पुव्वबद्धाणि भजियव्वाणि। 5 ३६५. एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । एवं तदियभासगाहाए विहासा समत्ता। * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्त्तिणा। हैं यह इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका भी यहींपर संग्रह कर लेना चाहिए, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उपयोग सामान्यकी अपेक्षा उनसे इनमें कोई भेद नहीं है, इसलिए इन चार उपयोगोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये चारों उपयोग इस क्षपकके कर्मस्थितिके भीतर नियमसे सम्भव देखे जाते हैं भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु०' ऐसा कहनेपर छद्मस्थके जो प्रत्यक्ष अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान रूप दो उपयोग होते हैं उनमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह इस सूत्रका अर्थ है, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके समान ये दोनों उपयोग इस क्षपकको पूर्वावस्थामें अवश्य हो होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं उपलब्ध होता। यहां इस सूत्रमें अवधिज्ञानका निर्देश करनेसे ही विभंगज्ञानका भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उसका भी उसमें अन्तर्भाव हो जाता है। अब इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं * अब इस तीसरी भाष्यगाथाको विभाषा करते हैं। ६३६४. यह सूत्र सुगम है। ॐ श्रुतज्ञान, श्रुतअज्ञान, मतिज्ञान और मत्यज्ञान इन चार उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं। * अवधिज्ञान, अवधिअज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन तीन उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं। 5 ३६१. ये दोनों सूत्र सुगम हैं । इस प्रकार तीसरी भाष्यगाथाकी विभाषा समाप्त हुई। * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाको समुत्कीर्तना करते हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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