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________________ खवगसेढीए पंचममूलगाहाए तदिया भासगाहा १३३ * ओरालिएण ओरालियमिस्सएण चउव्विहेण मणजोगेण चउव्विहेण वचि - जोगेण बद्धाणि अभज्जाणि । * सेसजोगेसु बद्धाणि भज्जाणि । ३६०. गयत्थमेवं सुत्तद्दयं । णवरि गाहासुत्ते 'ओरालिये सरीरे' इच्चादि सत्तमी विहत्तिणिद्देसो चुणिसुत्ते पुण 'ओरालिएण ओरालियमिस्सेणेत्ति' एवमादिगो तदियाविहत्तिणिद्देसो कदो । कथमेदेसि दोण्हमविरोहो त्ति पुच्छिदे णत्थि विरोहो, विवक्षातः कारकाणि भवन्तीति न्यायात् । एवं विदियभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो तदियभासगाहा ! ६३६१. सुगमं । * तं जहा । $ ३६२. सुगमं । (१३६) अध सुद-मदिउवजोगे होंति अभज्जाणि पुव्ववद्वाणि । भज्जाणि च पच्चक्खेसु दोसु छदुमत्थणाणेसु ॥ १८९ ॥ ६ ३६३. एसा तवियभासगाहा णाणमग्गणाए पुग्वबद्धाणं भय णिज्जा भय णिज्ज मात्र गवेसण - मणा । तं जहा 'अघ सुद-मदिउवजोगे' एवं भणिदे सुदणाणोवजोगे मदिणाणोवजोगे च वट्टमाणेण पुण्यबद्धाणि अभयणिज्जाणि होंति त्ति सुत्तत्यसंबंधो । मदि-सुदअण्णाणं पि एत्थेव * औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, चार प्रकारके वचनयोगके साथ बद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। क्षपकके भजनीय हैं। प्रकारके मनोयोग और चार तथा शेष योगोंमें बद्ध कर्म इस § ३६०. ये दोनों सूत्र गतार्थ हैं। इतनी विशेषता है कि गाथासूत्र में 'ओरालिये सरीरे' इस प्रकार सप्तमी विभक्तिका निर्देश किया है परन्तु चूर्णिसूत्र में तो 'ओरालिएण ओरालियमिस्सेण' इस प्रकार तृतीया विभक्तिका निर्देश किया है, इसलिए इन दोनों वचनोंमें अविरोध किस प्रकार है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं कि इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि विवक्षाके अनुसार कारकों को प्रवृत्ति होती है ऐसा न्याय है । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त हुई । * इससे आगे तीसरी भाष्यगाथा कहते हैं । $ ३६१. वह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । ६ ३६२. यह सूत्र सुगम है । (१३६) मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन दोनों उपयोगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं तथा छपथके दो प्रत्यक्ष उपयोगोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं ॥ १८९ ॥ § ३६३. यह तीसरी भाष्यगाथा ज्ञानमार्गणा में पूर्वबद्ध कर्मोंके इस क्षपकके भजनीय और अभजनीय भावकी गवेषणा के लिए अवतीर्ण हुई है। वह जैसे- 'अघ सुद-मदिउवजोगे' ऐसा कहनेपर श्रुतज्ञानोपयोग में और मतिज्ञानोपयोग में विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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