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________________ १८६ यधवलासहिदे कसायपाहुडे § ४९२. सुगमं । * समयपत्रद्धसेस जिस्से द्विदीए णत्थि वदो विदियाए हिदीए ण होज्ज, तदियाए ठिदीए ण होज्ज, तदो चउत्थीए ण होज्ज । एवमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीस द्विदीसु ण होज्ज समयपबद्ध से सयं । ४९३. गाढवेयश्वमिदं सुत्तं, पुव्वसुत्तेणेव णिण्णोदत्य विसेसस्स पुणो परूवणाए फलविसावलंभादो त्तिणासंकियव्यं पुष्वुत्तमेवत्थस्स विमेसमणुसंभालिय पुणो एत्तो उवरि सामणद्विदीओ एदेण कमेण लब्भंति त्ति जाणावणटुं तप्परूवणे कीरमाणे दोसाणुवलंभादो । एवमेदं संभालिय पुणो एत्तियमेत्तमंतरमुल्लंघिय तत्तो परं नियमा समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ होंति त्ति जाणावणमिदमाह - * आवलियाए असंखेज्जदिभागं गंतूण णियमा समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ | ६ ४९४. अंतरच रिमद्विविमुल्लंघिय तत्तो परं समयपबद्धसेसएण अविरहिदाओ द्विदीओ गादिमुत्तरकमेण लब्भमाणाओ उक्कस्सेण वासवृधत्तमेत्तीओ होंति ति एसो एत्थ सुत्तत्य संगहो । संपहिएदासि चेव एगाणेगसमयपबद्धसेसएहि अविरहिदाणं ठिदीणं थोवबहुत गवेसणट्ठमुत्तरसुत्तायारो $ ४९२. यह सूत्र सुगम है । जिस स्थिति में समयबद्धशेष नहीं है, उससे आगे दूसरी स्थितिमें वह न होवे, तीसरी स्थिति में न होवे, उससे आगे चौथो स्थितिमें न होवें, इस प्रकार क्रमसे जाते हुए वह समयप्रबद्धशेष उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंमें नहीं होवें यह सम्भव है । ६ ४९३. शंका - यह सूत्र आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि पूर्व सूत्रके द्वारा ही इस सूत्र के अर्थविशेषका निर्णय किया जा चुका है, अतः इसकी पुनः प्ररूपणा करने में फलविशेष नहीं उपलब्ध होता ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पहले कहे गये अर्थ की विशेष सम्हाल करके पुनः इससे अागे सामान्य स्थितियां इस क्रमसे पायी जाती हैं इस बातका ज्ञान कराने के लिए उसकी प्ररूपणा करने में कोई दोष नहीं पाया जाता । इस प्रकार इस अर्थकी सम्हाल करके पुनः इतने मात्र अन्तरका उल्लंघन करके उससे आगे नियमसे समयबद्धशेष से युक्त स्थितियां होती हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * किन्तु उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियाँ जानेपर समयप्रबद्धशेषसे युक्त स्थितियां नियमसे होती हैं। § ४९४. अन्तरकी अन्तिम स्थितियोंका उल्लंघन कर उससे आगे समयप्रबद्धशेषसे युक्त एकसे लेकर आगे एक-एकके क्रमसे बढ़कर प्राप्त होती हुई वे स्थितियां उत्कृष्ट वर्ष पृथक्त्व प्रमाण तक होती हैं इस प्रकार यह यहाँ पर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । अब इन्हीं समयप्रबद्धोंसे युक्त स्थितियोंके अलाबहुत्रका अनुसन्धान करनेके लिए आगेके करते हैं एक और अनेक सूत्रका अवतार
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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