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________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए चउत्थमासगाहा पच्छिमे समए तवणंतरोवरिमदिदीए 'भवसमयसेसाणि समयपबद्धसेसयाणि च णियमा' णिच्छये. व 'तम्हि' तम्हि खवगे 'तम्हि वा अटुवस्समेत्तट्ठिदिसंतकम्मन्भंतरे 'उत्तरपदाणि' एगादिएगुत्तरकमेण परिवड्डिवाणि एगादिएगुत्तरटिदिविसेसेसु वा लद्धावट्ठाणाणि दट्टव्वाणि त्ति सुत्तत्थसंबंधो। ६४९० संपहि एक्स्स समुदायत्थे भण्णमाणे सामण्णठिवीणमंतरमसामण्णद्विदीओ भवंति । ताओ च जहणेण एक्को वा दो वा तिणि वा एवं गंतूण जावुक्कस्सेगावलियाए असंखेज्जदि. भागमेतीओ णिरंतरमुवलब्भंति ति पुवसुत्ते भणिदं। पुणो तासिमसामण्ण दिदीगं चरिमट्टिदोदो जा उवरिमाणंतरट्टिदो तम्मि समयपबद्धसेसयाणि भवबद्धसेसयाणि च णियमा होति । होताणि वि एगादिएगुत्तरपरिवड्डीए जाव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेताणं समयपबद्धाणं भवबद्धाणं च सेसयाणि तम्मि टिदिविसेसे होदूण लब्भंति । ताणि च ण केवलमेक्कम्मि चेव टिदिविसेसे चिटुंति; किंतु एगादिएगुत्तरपरिवड्डिदेसु टिदिविसेसेसु उक्कस्सेण वासपुधत्ताव. च्छिण्णपमाणेसु णिरंतरमवचिटुंति त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थपरमत्यो । ६४९१. संपहि एक्स्सेव फुडीकरणटुमवरिमं विहासागंथमाढवेइ* विहासा। स्थिति है उसके 'पच्छिमे समए' अनन्तर उपरिम स्थितिमें 'भव-समयसेसाणि दु' भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष "णियमा तम्हि' नियमसे उस क्षपकके या 'तम्हि' आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मके भीतर 'उत्तरदाणि' एकसे लेकर आगे एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए स्थान जानने चाहिए या एकसे लेकर आगे एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए स्थितिविशेषोंमें उत्तरपद जानने चाहिए। ४९०. अब इसके समुच्चयरूप अर्थके कहनेपर सामान्य स्थितियोंके अन्तरस्वरूप असामान्य स्थितियां होती हैं। और वे जघन्यसे एक अथवा दो अथवा तीन होती हैं। इस प्रकार एक-एक बढ़ाते हुए वे उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तररहित उपलब्ध होतो हैं यह पूर्व सूत्र में कह आये हैं। पुनः उन असामान्य स्थितियों-सम्बन्धी अन्तिम स्थितिसे उपरिम जो अनन्तर स्थिति है उसमें समयप्रबद्धशेष नियमसे होते हैं । होते हुए भी एकसे लेकर आगे एक-एकको वृद्धिसे युक्त वे उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों और भवबद्धोंके शेष उस स्थितिविशेषमें होकर प्राप्त होते हैं । और वे केवल एक ही स्थितिविशेषमें नहीं पाये जाते, किन्तु एकसे लेकर एक-एक अधिकके क्रमसे बढ़े हुए उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितिविशेषोंमें निरन्तररूपसे अवस्थित रहते हैं इस प्रकार यह यहां इस सूत्रका परमार्थस्वरूप अर्थ है। विशेषार्थ-आशय यह है कि असामान्य स्थितियोंके बीच-बीचमें सामान्य स्थितियां होती हैं। कहीं एक असामान्य स्थितिके अनन्तर एकादि सामान्य स्थितियां होती हैं । कहीं दो असामान्य स्थितियोंके अनन्तर एकादि सामान्य स्थितियां पायी जाती हैं। यहां एकादि सामान्य स्थितियोंके अन्तरस्वरूप स्थित असामान्य स्थितियां एकसे लेकर आवलिके असंख्यातवें भाग तक हो सकती हैं और इसी प्रकार एकादि असामान्य स्थितियोंके बाद सामान्य स्थितियां भी उतनी हो हो सकती हैं। 5 ४९१. अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिए लागेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं* अब इस भाष्यगाथाडी विभाषा करते हैं। २४
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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