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________________ १८४ जयधवळासहिदे कसायपाहुडे पबद्धस्स भवबद्धस्स वा वेदिदसेसगा कम्मपवेसा से काले णिरवसेस मोकडुणाए उदयमागच्छंति ति पुव्विल्लसमये चेव अप्पप्पणो पडिबद्ध उवरिमट्ठिदिविसेसेसु वट्टमाणा घेत्तव्वा । एवमेतिएण पबंधेण तदियभासगाहाए अत्यविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए चउत्य भास गाहाए विहासणं कुणमाणो उवरिम सुत्तपबंधमाढवेइ * एत्तो चउत्थीए भासगाहाए समुक्कित्तणा । ६ ४८७. सुगमं । (१५०) देण अंतरेण दु अपच्छिमाए दु पच्छिमे समए । भवसमय से सगाणि दुज़ियमा तम्हि उत्तरपदाणि ॥ २०३ ॥ ४८८. तदियभासगाहाए जहा उत्थाणत्थपरूवणा कदा तहा चेव एदिस्से चउत्थभासगाहाए कायन्त्रा; विसेसाभावाढो । णवरि तदिय भासगाहा सामण्णद्विदीणमंतरभूदाओ असामण्णद्विदीओ पहाणभावेण परूवे । एसा वुण असामण्णद्विदीहि अंतरिवाणं सामण्णद्विदीनं पहाणभावेण परूवणं कुर्णादित्ति एसो विसेसो जाणियव्वो । ६४८९. संपहि एविस्से चउत्थभासगाहाए अवयवत्यपरूवणं कस्सामो । तं जहा - 'एवेण अंतरेण दु' एदेणाणंतरपरूविदेण आवलियाए असंखेज्ज विभागमे तुक्कस्संतरेण 'अपच्छिमाए दु' पुग्वृत्तावलिया संखेज्ज विभागमेत्तुक्कस्संतरस्स जा अपच्छिमा चरिमा असामण्णद्विवी तिस्से ऐसा कहने पर एक-एक समय प्रबद्ध के और एक-एक भवबद्धके वेदे जाने के बाद जो शेष कर्मप्रदेश रहे वे अनन्तर समय में पूरे के पूरे अपकर्षण द्वारा उदयको प्राप्त हो जाते हैं, इसलिए उदयसे पहले के समय में अपने-अपने सम्बन्धी उपरिम स्थितिविशेषों में विद्यमान ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा तीसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषाको समाप्त कर अब यथावसर प्राप्त चौथो भाष्यगाथाकी विभाषा करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इससे आगे चौथी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । ६ ४८७. यह सूत्र सुगम है । (१५०) इस अनन्तर कहे गये आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरसे युक्त अन्तमें जो असामान्य स्थिति प्राप्त होती है उससे अनन्तर उपरिम स्थितिमें भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष नियमसे उस क्षपकके उत्तरपदरूप होते हैं ॥२०३॥ $ ४८८. तीसरी भाष्यगाथा के जिस प्रकार उत्थानरूप अर्थ की प्ररूपणा की है उसी प्रकार इस चौथी भाष्यगाथाके अर्थ की प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उसको प्ररूपणा से इसकी प्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता है कि तीसरी भाष्यगाथा सामान्य स्थितियोंसे अन्तरित असामान्य स्थितियों की प्रधानरूपसे प्ररूपणा करती है । परन्तु यह गाथा असामान्य स्थितियोंसे अन्तरित सामान्य स्थितियोंकी प्रधानरूपसे प्ररूपणा करती है यह विशेष इन दोनों में जानना चाहिए । ६ ४८९. अब इस चौथी भाष्यगाथाको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे – 'एवेण अंतरेण दु' इस अनन्तर कहे गये आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरसे 'अपच्छिमाए दु' अर्थात् पूर्वोक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकी जो 'अपश्चिम' अर्थात् अन्तिम असामान्य
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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