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________________ खवगसेढोए अट्ठममूलगाहाए तदियभासगाहा १८३ * आवलियाए असंखेन्जदिमागे जवमझं । ६४८५. आदीदोप्पहुडि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाणं तप्पाओग्गासंखेज्जदुगुणवडि. गन्भं तूण तदिवियप्पपडिबद्धाणं समयपबद्धाणं ठविदसलागाओ जवमझसरूवेण वटुवाओ ति भणिदं होइ। आदीदोप्पहुडि कमवड्डोए जाव एहरं ताव आगंतूण एतो परं विसेसहोणसरूवेण उरिमवियप्पसलागाणं गमणदंसणादो जवमझमेदं जादमिदि एसो एत्थ भावत्थो। संपहि एदस्सेव फुडोकरणट्ठमुवरिमं सत्तमोइण्णं * तदो हायमाणढाणाणि वासपुधत्तं । ६४८६. एत्तो परमुवरिमवियप्पेसु समयपबद्धसलागाओ जहाकम हीयमाणाओ गच्छंति जाव असंखेज्जगुणहाणिगभं वासपुषत्तमेतद्धाणं जवमझादो उवरि गंतूण चरिमवियप्पो समुप्पण्णो ति । तत्थ चरिमवियप्पे वासपुधत्तमेतद्विदोस सेसभावेण द्विदसमयपबद्धा सुट्ट थोवा होदूण पयदजवमज्झपरूवणाए पज्जवसाणं होति ति एसो एत्थ सुत्तत्थसम्भावो। एत्थ जवमज्झादो उवरिमद्वाणं वासबुधत्तमें तमेवेत्ति कुदो णबदे ? ण, विदियट्रिदिपमाणस्स वास धत्तादो अहिययरस्साणुवलंभादो। एवं भवबद्धसेसयाणं पि एसा जवमझपरूवणा णिरवयवमणुगंतव्य विससाभावादो। एत्थ सव्वत्थ भवसेसयं समयपबद्धसेसयमिदि च वुत्ते एक्केक्कस्स समय * आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धिस्थानोंके अन्तिम भेदमें यवमध्य प्राप्त होता है। ६४८५. प्रारम्भसे लेकर तत्प्रायोग्य द्विगुणवृद्धिस्थान गर्भ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान जाकर वहाँ सम्बन्धी विकल्पोंसे प्रतिबद्ध समयप्रबद्धोंको स्थापित हुई शलाकाएं यवमध्य. स्वरूप होतो हैं ऐसा जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि प्रारम्भसे लेकर क्रमवृद्धि द्वारा इतने दूर आकर इससे आगे विशेष होनरूपसे उपरिम भेदोंकी शलाकाएं प्राप्त होतो हुई देखो जानेसे यहाँ यवमध्य हो जाता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब इसो अर्थको स्पष्ट करने के लिए आगेका सूत्र आया है * उससे आगे होयमान स्थान वर्षपृथक्त्वप्रमाण हैं । ६४८६. इससे आगे-आगेके भेदोंमें समयप्रबद्ध शलाकाएं क्रमसे होयमान होकर तबतक जाती हैं जब जाकर यवमध्यसे ऊपर असंख्यात गुणहानिगर्भ वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थान जाकर अन्तिम विकल्प उत्पन्न हुआ है। वहां अन्तिम भेदमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंमें शेषरूपसे अवस्थित समयप्रबद्ध सबसे थोड़े होकर प्रकृत यवमध्यप्ररूपणाका अन्त होता है यह यहां इस सूत्रके साथ अर्थका सद्भावसूचक सम्बन्ध है। शंका-यहां यवमध्यसे उपरिम स्थान वर्षपृथक्त्वप्रमाण हो है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृतमें द्वितीय स्थितिका प्रमाण वर्षपृथक्त्वसे अधिक नहीं पाया जाता। इस प्रकार भवबढशेषोंकी यह यवमध्यप्ररूपणा भी पूरी तरहसे इसी प्रकार जाननी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें अन्य कोई विशेषता नहीं है। यहाँपर सर्वत्र भवबशेष और समयप्रबद्धशेष
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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