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________________ १८२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६४८२. दोसु दिदिविसेसेस सेसभावेण दिदा जे समयपबद्धा तेसिं गहिदसलागाओ पुग्विल्ल. सलागाहितो विसेसाहियाओ होति त्ति वुत्तं होदि । विसेसपमाणमेत्थ हेद्विमसमयपबद्धसलागाणमावलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागियमिदि घेतव्वं; एस्थतणणिसेगभागहारस्स गुणहाणि अद्धाणमेत्तस्स तप्पमाणत्तादो। * आवलियाए असंखेज्जदिमागे दुगुणा । $ ४८३. जे तिस दिदिविसेसेसु सेसभावेण द्विदा समयपबद्धा ते विसेसाहिया इच्चादिकोण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतद्धाणमुवरि गंतूण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेतहिदिविसेसेसु सेसभावेणावहिदा जे समयपबद्धा तेसि गहिदसलागाओ पढमवियप्पसलागाहिती दुगुणमेंतीओ होति त्ति वुत्तं होइ। ४८४. एतो उवरि पुणो वि विसेसाहियवड्डीए णेदव्वं जाव पुग्विल्लदुगुणवडिअद्धाणेण सरिसमद्धाणमुवरि गंतूण विदिया दुगुणवड्डी समुप्पण्णा ति । एवमेदेण कमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तीओ दुगुणवडीओ गंतूण तदित्यदुगुणवड्डीए चरिमवियप्पे जवमझं समुप्पज्जदि त्ति इममत्थविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ ६४८२. दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं उनकी ग्रहण की गयी शलाकाएं विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहां विशेषका प्रमाण अधस्तन समयप्रबद्धोंकी शलाकाओंका आवलिके असंख्यातवें भागके प्रतिभागस्वरूप है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् अधस्तन समयप्रबद्धोंकी शलाकाओंमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी शलाकाएं यहां अधस्तन शलाकाओंसे विशेष अधिक हैं यह उक्त कथनका भाव है, क्योंकि यहांका निषेकभागहार गुणहानिस्थानोंका जितना प्रमाण है तत्प्रमाण है। * इस प्रकार क्रमसे जाते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेष. रूपसे जो समयप्रबद्ध प्रतिबद्ध हैं उनको शलाकाएं दूनी हैं। ६४८३. तीन स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं इत्यादि क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान ऊपर जाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे स्थित जो समयप्रबद्ध हैं उनमें से प्रत्येककी ग्रहण की गयी शलाकाएं प्रथम विकल्पको शलाकाओंसे दूनी होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-एक-एक स्थितिविशेषमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयप्रबद्ध हैं वे सबसे थोड़े हैं। दो-दो स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयप्रबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। तीन-तीन स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जितने समयबद्ध हैं वे विशेष अधिक हैं। इस प्रकार क्रमसे जाते हुए आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविशेषोंमें शेषरूपसे प्रतिबद्ध जो समयप्रबद्ध हैं वे प्रथम विकल्पको अपेक्षा दूने हैं। यह एक द्विगुगवृद्धिस्यान है। 5४८४. इससे आगे फिर भी जब जाकर पहलेके द्विगुणवृद्धिस्थानके सदृश स्थान ऊपर जाकर दूसरी द्विगुणवृद्धि उत्पन्न होती है वहाँ तक विशेष अधिकके क्रमसे वृद्धिको ले जाना चाहिए। इस प्रकार इस आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विगुणवृद्धियां हो जानेपर वहाँके द्विगुणवृद्धिके अन्तिम भेदमें यवमध्य उत्पन्न होता है इस अर्थविशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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