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जयधवलासहिदे कसायपाहु.
* किट्टीवेदगस्स ताव परूवणा कायन्वा । ६५९८. सगमं। * तं जहा। ६५९९. सगमं। * किट्टीणं पढमसमयवेदगस्स संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्ममट्ट वस्माणि । * तिण्डं घादिकम्माणं ठिदिसंतकम्मं संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । *णामागोदवेदणीयाणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । * संजलणाणं ठिदिबंधो चत्तारि मासा । * सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ।
६६००. एदाणि सुत्ताणि किट्टीवेदगपढमसमये सव्वेसि कम्माणं टिदिसंतकम्म टिदिबंधपमाणावहारणपडिबद्धाणि सुबोहाणि त्ति ण एत्थ वक्खाणायरो। ण चेदमेथासंकणिज्जं णवमीए मूलगाहाए दोहिं भासगाहाहि एसो अत्थो णिद्दिट्टो चेव, पुणो किम, परूविज्जदे ? पुणरत्तदोसप्पसंगादो ति ? किं कारणं, पुन्दुत्तस्सेवस्थस्स मंदबुद्धिजणाणुग्गहढे पुणो वि परूवणे कोरमाणे पुणरुत्तदोसाणवयारादो। एवमेदाम्म संधिविसेसे वट्टमाणस्स दिदिबंध-टिदिसंतकम्मपमाणं
* सर्वप्रथम कृष्टिवेदककी प्ररूपणा करनी चाहिए। ६५९८. यह सूत्र सुगम है।
वह जैसे। ६५९९. यह सूत्र सुगम है।
* कृष्टियोंका प्रथम समयमें वेदन करनेवाले क्षपकके संज्वलनोंका स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है।
* तीन घातिकर्मोंका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है। * नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वषंप्रमाण होता है । * संज्वलनोंका स्थितिबन्ध चार मासप्रमाण होता है। * शेष कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यात वर्षप्रमाण होता है।
६६.०. ये सब सूत्र कृष्टिवेदकके प्रथम समयमें सब कर्मोंके स्थितिसत्कर्म और स्थितिबन्धके प्रमाणके अवधारण करनेसे सम्बन्ध रखनेवाले हैं और सुबोध हैं, इसलिए यहां इनका व्याख्यान नहीं करते हैं।
शंका-नौवीं मूलगाथाओं द्वारा यह अर्थ निर्दिष्ट किया ही गया है, फिर इसकी प्ररूपणा किस लिए की जाती है, क्योंकि पुनः प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोषका प्रसंग आता है।
समाधान-यहां ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यद्यपि यह अर्थ पूर्वोक्त ही है तो भी मन्दबुद्धि जनोंका अनुग्रह करनेके लिए फिर भी उस अर्थको प्ररूपणा करनेपर पुनरुक्त दोषका अवतार नहीं होता।