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________________ खवगसेढोए किट्टीवेदगपरिभासत्थपरूवणा २३९ संभालिय संपहि एत्तो पाए संजलणाणं किट्टीगदाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणा एवं पयदि त्ति परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * किट्टीणं पढमसमयवेदगप्पहुडि मोहणीयस्स अणुभोगाणमणुसमयोवट्टणा । ६६०१. एत्तो पुठवमस्सकण्णकरणद्धाए किट्टीकरणद्धाए च अंतोमुहुत्तुक्कीरणकालपडिबद्धो अणुभागधादो संजलणपयडीणमस्सकण्णकरणायारेण पयट्टदि। एण्हिं पुणमोहणीयस्पकोहसंजलणादिभेदेण चउम्विहस्स वि जे अणुभागा किट्टीसरूवा संगहकिट्टीभेदेण बारसधा पविहत्ता तेसिमणुसमयोवट्टणा समये समये अणंतगुणहाणोए घादो पयट्टदि, एत्थतणपरिणामाणं तहाविहाणुभागघावहेदुत्तादो। ६६०२ एदस्स भावत्थो-बारसण्हं पि संगहकिट्टीणमेक्के किस्से किट्टीए अग्गकिट्टीप्पहुडि असंखेज्जविभागं समयपबद्धाणमणुभागं मोतूण संजलणाणभागसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणा एत्थ संजादा त्ति। णाणावरणादिकम्माणं पुण पुवुत्तेणेव कमेण अंतोमुहुत्तिओ अणभागघावो पयट्टवि, तहा चेव सम्वेसि कम्माणं टिदिधादो वि पयदि ति ण एत्थ किंचि जाणत्तमत्थि। एवमेवेण सुत्तेण संजलणाणमणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयोवट्टणाए पारंभं पदुप्पाइय संपहि तेसिमणुभागबंधोदयाणं पि समयं पडि पवुत्तिविसेपजाणावणमुत्तरो सुत्तपबंधो इस प्रकार इस सन्धिविशेष में विद्यमान क्षपकके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वके प्रमाणको सम्हाल करके अब इससे आगे प्रायः संज्वलनोंके कृष्टिगत अनुभागकी अनुसमय अपवर्तना इस प्रकार प्रवृत्त होती है इस बातका प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * कृष्टियोंके वेदकके प्रथम समयसे लेकर मोहनीय कर्मके अनुभागोंको अनुसमय अपवर्तना होती है। ६६०१. इससे पूर्व अश्वकर्णकरणके. काल में और कृष्टिकरणके कालमें अन्तर्मुहर्त काल तक उत्कोरण कालसे सम्बन्ध रखनेवाला संज्वलन प्रकृतियोंका अनुभाग अश्वकर्णकरणके आकारसे प्रवृत्त होता है, परन्तु इस समय क्रोध संज्वलन आदिके भेदसे चार प्रकारके मोहनीय कर्मका जो भी अनुभाग कृष्टिस्वरूप होकर संग्रहकृष्टिके भेदसे बारह प्रकारसे विभक्त हो गया है उनको अनुसमय अपवर्तना प्रत्येक समयमें अनन्तगुणहानिरूपसे घात होकर प्रवृत्त होती है, क्योंकि यहाँ सम्बन्धी परिणाम उस प्रकारके अनुभागघातके हेतु हैं । ६६०२. इसका भावार्थ-बारह ही संग्रह कृष्टियों में से एक-एक कृष्टिकी अग्रकृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धोंके अनुभागको छोड़कर संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्मको अनुसमय अपवर्तना यहां प्रारम्भ हो गयी है। ज्ञानावरणादि कर्मोका तो पूर्वोक्तरूपसे ही क्रमसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला अनुभागघात प्रवृत्त रहता है तथा उसी प्रकार सब कर्मोका स्थितिघात भी प्रवृत्त रहता है। इस प्रकार इसमें किसी प्रकारका भेद नहीं है। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्म के अनुभागकी पपवर्तनाके प्रारम्भका कथन करके अब उनके प्रतिसमय होनेवाले अनुभागबन्ध और अनुभागउदयकी भी प्रवृत्तिविशेषका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध प्रारम्भ करते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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