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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * पढमसमयकिट्टीवेदगस्स कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा।
६६०३. कोहसंजलणस्स ताव पढमसंगहकिट्टीसरूवेण बंधोदया पयट्टमाणा हेटिमोवरिमा. संखेज्जदिभागं मोत्तूण मज्झिमकिट्टीसरूवेणेव पयति । एवं पयट्टमाणाणं बंधोदयाणमग्गदिदीओ समवे समये अणंतगुणहीणाओ वटुंति । तत्थ 'पढमसमय० कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी' एवं भणिदे उदयम्मि पविसमाणाओ अणंताओ मज्झिमकिट्टीओ अस्थि, तामु जावुक्कस्सकिट्टो सम्वुवरिमा सा बहुगी तिव्वाणुभागा त्ति वुत्तं होइ । 'बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा' एवं भणिदे बज्झमाणकिट्टीओ वि अर्णताओ भवंति । पुणो तासु जा बज्झमाणकिट्टी सव्वुक्कस्सिया सा अणंतगुणहीणा । किं कारणं; उदयग्गकिट्टीदो अणंताओ किट्टीओ हेट्ठा ओसरियूणेदिस्से समवट्टाणदसणादो।
* विदियसमये उदये उक्कस्सियो अणंतगुण हीणा ।
६६०४. कुदो ? अणंतगुणविसोहिमाहप्पेण पढमसमयबंधग्गकिट्टीदो वि अणंतगुणहाणीए परिणमिय विदियसमए उदयुक्कस्सकिट्टीए पवुत्तिणियमदंसाणादो।
* बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा।
* प्रथम समयमे कृष्टिवेवक जीवके जो कोषकृष्टि उदय में प्रवेश करतो ह वह उत्कृष्ट होकर बहुत ( तीव्र ) अनुभागवाली होती है।
६६०३. सर्वप्रथम क्रोषसंज्वलनके प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे प्रवर्तमान बन्ध और उदय नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे ही प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार प्रवर्तमान बन्ध और उदयोंकी अग्र स्थितियां प्रत्येक समयमें अनन्तगुणी हीन होकर ही प्रवृत्त होती हैं। उनमें 'पढमसमय० कोहकिट्टी उदये उक्कस्सिया बहुगी' ऐसा कहनेपर उदयमें प्रवेश करनेवाली अनन्त मध्यम कृष्टियां होती हैं, उनमें से जो सबसे उपरिम उत्कृष्ट कृष्टि है वह बहुत अर्थात् तीव्र अनुभागवाली होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा' इस प्रकार कहनेपर बध्यमान कृष्टियां भी अनन्त होती हैं । पुनः उनमें जो बध्यमान कृष्टि सबसे उत्कृष्ट है वह अनन्तगुणी हीन होती है।
शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-क्योंकि उदयरूप अग्र कृष्टिसे अनन्त कृष्टियां नीचे सरककर इसका अवस्थान देखा जाता है।
दूसरे समय में उदय में प्रवेश करनेवाली उत्कृष्ट क्रोषकृष्टि अनन्तगुणहीन अनुभागवालो होती है।
६६०४. क्योंकि पूर्व समयसे अनन्तगुणी विशुद्धिके माहात्म्यवश प्रथम समयमें बंधनेवाली कृष्टिसे भी अनन्तगुणहानिरूपसे परिणमन कर दूसरे समयमें उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टिकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
* किन्तु बन्धमें क्रोधकृष्टि उत्कृष्ट होकर अनन्तगुणहीन अनुभागवाली होती है।