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________________ खवगसेढोए अभवसिद्धिकपाओग्गा अण्णा परूवणा २४१ ६ ६०५. पढमसमय बंधुक्कस्स किट्टीदो अनंतगुण होणविदियसमय उदयुक्कस्स किट्टोदो वि अनंत गुणहाणीए परिणमिय विदियसमये बंधुक्कस्सकिट्टी पयट्टदि त्तिभणिदं होइ । कुदो एवमिदि चे ? परिणामपाहम्मादो । * एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । ६६०६. जहा पढम-विदियसमयेसु बंधोदयउक्कस्सकिट्टीणमप्पा बहुअकमो परुविदो एवं चैव सव्विस्से किट्टी वेदगद्धाए परूवेयव्वो; विसेसाभावादोत्ति भणिदं होइ । संपहि बंधोदयजहण्णकिट्टीi के रिसमप्पा बहुअं होदि त्ति आसंकाए णिरागीकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभी * पढमसमये बंधे जहण्णिया किट्टी तिव्वाणुभागा । $ ६०७. कुदो ? उदयजहष्णकिट्टीदो उवरि अणंताओ किट्टीओ अब्भुस्सरिणेदिस्से पवृत्तिदंसणादो । * उदये जहण्णिया किट्टी अनंतगुणहीणा । ६६०८. कुदो ? बंधजहण्ण किट्टीदो हेट्ठा अणंताओ किट्टीओ सयलकिट्टोअद्धाणस्सा संखेज्जभागमेतीओ ओसरियणे दिस्से पवृत्तिअब्भुवगमादो । एदस्स भावत्यो-वेदिज्ज माणसयल किट्टीणं हेट्टिमोरिमा संखेज्जदिभागं मोत्तूण मज्झिमबहुभागसरूवेणेव बंधो पयट्टदि । एवं च पयट्टमाण § ६०५. प्रथम समयवर्ती बन्धविषयक उत्कृष्ट कृष्टिसे तथा दूसरे समयवर्ती अनन्तगुणी हीन उदय उत्कृष्ट कृष्टिसे भी अनन्तगुणहानिरूपसे परिणमन करके दूसरे समय में बन्धोत्कृष्ट कृष्टि प्रवृत्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- ऐसा किस कारण होता है ? समाधान - परिणामोंके माहात्म्यवश ऐसा होता है । इसी प्रकार समस्त कृष्टिवेदक कालमें प्ररूपणा करनी चाहिए । $ ६०६. जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय समय में बन्ध और उदयरूप कृष्टियों के अल्पबहुत्व के क्रमकी प्ररूपणा की है इसी प्रकार समस्त कृष्टिवेदक कालमें प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उक्त कथनमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब बन्ध और उदयरूप घन्य कृष्टियोंका किस प्रकारका अल्पबहुत्व होता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करने के लिए आगे सूत्रका आरम्भ करते हैं-. प्रथम समय के बन्धमें जघन्य कृष्टि तीव्र अनुभागवाली होती है । ६६०७. क्योंकि उदयमें प्रवृत्त जघन्य कृष्टिसे ऊपर अनन्त कृष्टियों सरककर इस कृष्टिको प्रवृत्ति देखी जाती है । * उदयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होन होती है। § ६०८. क्योंकि बन्ध जघन्य कृष्टिसे नीचे अनन्त कृष्टियां समस्त कृष्टि अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण सरककर इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इसका भावार्थ - वेद्यमान समस्त कृष्टियों के अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर मध्यम बहुभागस्वरूपसे ही बन्ध प्रवृत्त होता ३१
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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