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________________ २४२ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे बंधग्गकिट्टी उदयग्गकिट्टीदो अणंतगुणहीणा जादा। हेटा पुण उदयजहण्णकिट्टीदो बंधजहणकिट्टी अणंतगुणा चेव, उरि वि हेट्ठा बंधाणुभागस्स सुट्ठ ओवट्टणासंभवावो ति। * विदियसमये बंधा (बद्धा) जहणिया किट्टी अणंतगुणा । ६६०९. कुदो ? परिणामपाहम्मादो। * उदये जहणिया अणंतगुणहीणा । ६६१०. परिणामविसेसमासेज्ज बंधजहण्णकिट्टीदो उदयजहण्णकिट्टीए पडिसमयमणंत. गुणहाणीए चेव पवुत्तिणियमदंसणादो। * एवं सव्विस्से किट्टीवेदगद्धाए । * समये समये णिव्वग्गणाओ जहणियाओ वि य । ६६११. जहा पढम-विवियसमयेसु बंधोक्यजहण्णकिट्टीणमप्पाबहुअकमो पहविवो तहा चेव तवियादिसमएसु वि पहवेयव्यो, विसेसाभावादो ति वुत्तं होइ । एत्य "णिव्वग्गणाओ' त्ति वुत्ते बंधोदयजहण्यकिट्टोणमणतगुणहाणीए ओसरणवियप्पा गहेयम्या । है। और इस प्रकार प्रवृत्त होनेवाली बन्धानकृष्टि उदयानकृष्टिसे अनन्तगुणो हीन हो गयी है। परन्तु नीचे उदय जघन्य कृष्टिसे बन्ध जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी ही होती है, क्योंकि ऊपर भी नीचे बन्धानुभागकी अच्छी तरह अपवर्तना सम्भव है। * दूसरे समयमें बन्धको प्राप्त हुई जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है। ६६०९. क्योंकि परिणामविशेषके माहात्म्यसे ऐसा होता है। * उवयमें जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी हीन होती है। ६६१०. पयोंकि परिणामविशेषका आश्रय कर बन्ध जघन्य कृष्टिसे उदयरूप जघन्य कृष्टिका प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिरूपसे ही प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है। * इसी प्रकार सम्पूर्ण कृष्टिपेषककालमें बन्ध और उपयकी अपेक्षा जघन्य रुष्टियोंका अल्पबहत्व जानना चाहिए। सपा प्रत्येक समयमै मपन्य निर्माणाएं इसी प्रकार जाननी चाहिए। ११११. जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय समयमै बन्ध नीर अषयरूप जपाय कृष्टियोंके अल्पबस्वके क्रमका कपन दिया है, उसी प्रकार तृतीय मावि समयों में भी कथन करना चाहिए, क्योंकि पूर्व कपनसे इस कपनमें कोई भेद नहीं है। यहाँ 'णिम्वग्गणामो' ऐसा कहनेपर बध मोर अवयसम्बन्धी जपन्य कृष्टियोंके ममन्तगुणी हानिरूपसे अपसरणके विकल्प प्रहण करने चाहिए। ' विशेषार्थ--जो क्रोधकषायके उदयसे अपकणिपर पड़ा है उसके कृष्टिवेवककालमें कमियोका सवय और पाप किस कमसे प्रवृत्त होता है एतविषयक मरूपबस्वका प्रकृतमें प्ररूपण किया गया है। यह तो स्परही है कि अनिवृत्तिकरणमैं इस क्षपकके प्रत्येक समयमें परिणामोंविषयक विधिमनम्तगुणी पढ़ती जाती है और इस कारण मोहनीय कर्मक पषासम्भव भनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना होती जाती है। इस कारण यहाँ कोषकलापकी अपेक्षा स्वयं पौर पम्पकी प्रति किस प्रकार होती है बसी तब्यको स्पा कर लिए प्रकृति में पप और पन्धको
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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