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________________ षयधवलासहिदे कसायपाहुडे संपहि उदयट्ठिबीए किमट्ठमेत्य परिवज्जणं कोर ? को वा तत्थ विसेससंभवो त्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * उदयट्ठिदीए पुण वेदिजमाणियाए संगहकिट्टीए जाओ किट्टीओ तासिमसंखेजा भागा। ६ १७३. णिरुद्धसंगहकिट्टीए हेडिमोवरिमासंखेज्जभागं मोतूण मझिमकिट्टीसहवेणेव उदयाणुभागो परिणमदि ति एदेण कारणेण उदयट्टिवीए वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए अवयवकिट्टोणमसंखेज्जा भागा संभवंति त्ति सत्तेणेदेण णिद्दिष्टुं । ६१७४. संपहि सेसाणमवेबिज्जमाणियाणमेक्कारसहं पि संगहकिट्टीणमेण्हि पढमदिदिसंबंधाभावादो तासिमेक्केक्का किट्टी विवियदिदीए चेव सव्वासु द्विदीस वटुव्वा, ण पढमद्विदीए त्ति इममत्यविसेसं जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * सेसाणमवेदिजमाणिगाणं संगहकिट्टीणमेक्केक्का किट्टी सव्वासु विदियट्टिदीसु, पढमहिदीसु णस्थि । ६१७५. गयस्थमेदं सुत्तं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब उदय स्थितिका यहाँपर किसलिए निषेध किया है अथवा उसमें क्या विशेष सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * किन्तु वेद्यमान संग्रह कृष्टिको जितनी अवयव कृष्टियाँ हैं उनका असंख्यात बहुभाग उदय स्थितिमें पाया जाता है। १७३. विवक्षित संग्रह कृष्टिके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग प्रमाण अवयव कृष्टियोंको छोड़कर मध्यकी जो असंख्यात बहुमागप्रमाण अवयय कृष्टियां हैं उस रूपसे ही उदयरूप अनुभाग परिणत होता है, इस कारण वेद्यमान संग्रह कृष्टिको अवयव कृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदय स्थितिमें सम्भव है यह बात इस सूत्र द्वारा निर्दिष्ट की गयो है। विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका उदय होनेपर न तो असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन अवयव कृष्टियां अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त होती हैं और न ही असंख्यातवें भाग प्रमाण उपरिम अवयव कृष्टियां अपने स्वरूपसे पदयको प्राप्त होती हैं। किन्तु मध्यकी असंख्यात बहुभागप्रमाण अवयव कृष्टियां ही उदयरूपसे परिणत होती हैं, इसलिए पूर्व सूत्रमें उदयस्थितिको छोड़कर यह वचन कहा है । शेष कथन सुगम है । ६१७४. अब अवेद्यमान शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंका प्रथम स्थितिके साथ सम्बन्ध न होनेसे उनकी एक-एक अवयव कृष्टि द्वितीय स्थितिको ही सब स्थितियोंमें जानना चाहिए, प्रथम स्थितिमें नहीं इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं ____* शेष अवेद्यमान ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी एक-एक अवयव कृष्टि द्वितीय स्थितिको सब अवान्तर स्थितियोंमें पायी जाती है, किन्तु प्रथम स्थितिकी अवान्तर स्थितियोंमें नहीं पायी जाती। 5 १७५. यह सूत्र गतार्थ है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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