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________________ जधवलासहिदे कसायपाहुडे * तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव । ६ २०. जारिसं पढम-विदियसंगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव विविय-तदियसंगहकिट्टीणं पि अंतरमवहारेयव्वं, परत्थाणगुणगारमाहप्पेणेवस्स वि पुठवुत्तरासेससत्थाणगुणगारेहितो अणंतगुणत्तं पडि तत्तो भेदाभावादो। गवरि पुटिवल्लादो संगहकिट्टीअंतरावो एदमंतरमणंतगुणमिवि उवरिमपरूवणादो णिण्णयो कायव्वो। एस्थ गुणगारो चेव अंतरमिदि घेत्तव्यं, किट्टीगुणगारस्सेव किट्टीअंतरत्तेण विवक्खियत्तादो । एतो उवरि लोभस्स सदियसंगहकिट्टीए अवयवकिट्टीणं सत्थाणगुणगाराणुसारेण पुव्वं व पयदप्पाबहुअजोयणा कायव्वा, विसेसाभावादो। * एवमेदाओ लोभस्स तिण्णि संगहकिट्टीओ। - २१. णेदं सुत्तमाढवेयवं, अणुत्तसिद्धत्तादो त्ति णासंका कायठवा, संगहकिट्टीविसए अगहिदसंकेदाणं सिस्साणं तस्विसयणिच्छयउप्पायणटुमोइणस्सेदस्स सुत्तस्स सयलत्तोडलंभादो। ___* लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमा किट्टी तदो मायाए जहण्णकिट्टी अणंतगुणा। 5 २२. एत्थ गुणगारो सत्थाणगुणगारेहितो सम्वेहितो अणंतगुणो परत्याणगुणगारो। * मायाए वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। * पुनः इससे आगे दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंका अन्तर वैसा ही है। २०. जैसा प्रथम और द्वितीय संग्रह कृष्टियोंका अन्तर है वैसा ही दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियोंका भी अन्तर है ऐसा निश्चय करना चाहिए, क्योंकि परस्थान गुणकारके माहात्म्यवश यह भी पूर्व और उत्तर समस्त स्वस्थान गणकारोंसे अनन्तगणा है इस अपेक्षा उससे इसमें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि पूर्वके संग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तरकी अपेक्षा यह अन्तर अनन्तगुणा है इस प्रकार इसका उपरिम प्ररूपणासे निर्णय करना चाहिए। यहाँ गुणकार ही अन्तर है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि प्रकृतमें कृष्टि गुणकार ही कृष्टि अन्तररूपसे विवक्षित है। इससे आगे लोभको तृतीय संग्रह कृष्टिसम्बन्धी गुणकारको, अवयव कृष्टियोंके स्वस्थान गुणकारके अनुसार, पहलेके समान प्रकृत अल्पबहुत्वको योजना करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। * इस प्रकार ये लोभको तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं। $ २१. शंका-इस सूत्रका आरम्भ नहीं करना चाहिए, क्योंकि बिना कहे ही इसकी सिद्धि हो जाती है? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिन शिष्योंने संग्रह कृष्टियोंके विषयमें संकेत ग्रहण नहीं किया है उनको एतद्विषयक निश्चय उत्पन्न करके लिए आये हुए इस सूत्रको सफलता उपलब्ध होती है। * लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिको जो अन्तिम कृष्टि है उससे मायाको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। २२. यहाँपर गुणकार सभी स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा परस्थान गुणकार है। आशय यह है कि यह परस्थान गुणकार है, इसलिए सभी स्वस्थान गुणकारोंसे अनन्तगुणा है। * मायाको भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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