SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढिए किट्टीणं गुणगारपरूवणा $ २३ जहा लोभस्स तिण्हं संगहकिट्टीणमप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा मायाए वि तिण्हं संगहकिट्टीणं पयदप्पाबहुअजोयणा कायन्वा ति वुत्तं होइ । सेसं सुगमं। * मायाए जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। ६२४. परत्याणगुणगारमाहप्पमेत्य वि पुठ्वं व बट्रव्यं । * माणस्स वि तेणेव कमेण तिणि संगहकिट्टीओ। * माणस्स जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो कोधस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। * कोहम्म वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। २५. एनाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * कोधरम तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमकिट्टी तदो लोभस्स अपुव्वफयाणमादिवग्गणा अणंतगुणा। ६२६. कुदो ? किट्टीगदाणुभागावो फद्दयगदाणुभागस्साणंतगुणत्तसिद्धीए बाहाणुवलंभादो। २३. जिस प्रकार लोभकी तीन संग्रह कृष्टियोंके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की है उसी प्रकार मायाको भी तीन संग्रह कृष्टियोंके भी प्रकृत अल्पबहुत्वको योजना करनी चाहिए यह उका कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। * मायाको जो तीसरी संग्रह कृष्टि है उसको अन्तिम कृष्टिसे मानको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। २४. परस्यान गणकारके माहात्म्यका यहां भी पहलेके समान कथन जानना चाहिए । * मानकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं। के मानको जो तीसरी संग्रह कृष्टि है उसको अन्तिम कृष्टि से क्रोधको जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। * क्रोधको भी उसी क्रमसे तीन संग्रह कृष्टियाँ होती हैं। $२५. ये सूत्र सुगम हैं। ॐ क्रोधको तीसरी संग्रह कृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि है उससे लोभके अपूर्व स्पर्धकोंको आदि वर्गणा अनन्तगणी है। ६२६. क्योंकि कृष्टिगत अनुभागसे स्पर्धकगत अनुभाग अनन्तगुणा है ऐसा सिद्ध होने में बाधा नहीं पायी जाती। विशेषार्थ-पूर्व में जिन क्रोधादि कषाय सम्बन्धी १२ संग्रह कृष्टियों और उनमें से प्रत्येककी अनन्त अवान्तर या अवयव कृष्टियोंका निर्देश कर आये हैं उनमेंसे प्रत्येक कृष्टि किस अनुभागस्वरूप होती है, क्या उनमें से प्रत्येकको सदृश अनुभाग प्राप्त होता है या न्यूनाधिक अनुभागरूपसे उनकी रचना होती है इसी शंकाके उत्तरस्वरूप यहां अनुभागकी अपेक्षा तीव्र-मन्दताका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि सबसे नीचे लोभ संज्वलनसम्बन्धी प्रथम संग्रह कृष्टिकी जो सबसे जघन्य अवान्तर कृष्टि है उसमें प्राप्त हुआ अनुभाग सबसे स्तोक होता है। उससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणे अनुभागस्वरूप होती है। यहां गुणकार अभव्योंसे अनन्तगणा और सिद्धोंके अनन्तवें
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy