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________________ १३८ जयघवलासहिदे कसायपाहुरे 5 ३७७. एसा पढमभासगाहा पुव्वुत्ताणं सव्वासिमेव पुच्छाणं णिण्णयविहाणटुमोइण्णा। संपहि एविस्से किंचि अवयवत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा-'लेस्सा साद असादे च' एवं मणिदे छसु लेस्सासु सादासादोदएसु च वट्टमाणेण पुवबद्धाणि अभज्जाणि णियमा ताणि अत्थि त्ति वुत्तं होदि । कुदो एदेसिमभज्जत्तणियमो त्ति चे ? लेस्साभेदाणं सादासादोदयाणं च तिरिक्ख-मणुस्सेसु अंतोमुहत्तेण परावत्तणणियमदंसणादो। ण चावट्टिदलेस्सेसु देव-णेरइएसु पविट्ठस्त अण्णहाभावसंभवो आसंकणिज्जो, कम्महिदिमेत्तकालं तत्थावट्ठाणासंभवेण तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पज्जिय छसु लेस्सासु परावत्तमाणस्स सव्वलेस्सासंचयाणं खवगसेढोए अवस्संभावणियमदंसणादो। ६३७८. 'कम्म सिप्प लिंगे च' एवं भणिदे सम्वेसु कम्मेसु सम्वेसु सिप्पेसु सम्वेसु । लिंगग्गहणेसु वट्टमाणेण पुवबद्धाणि भजिदम्याणि त्ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एवेसि भयणिज्जतमिदि घे? तेसिमवस्संभावणियमाभावादो । णिग्गंलिंगसंचयस्स अवस्संभावणियमसणादो ण ३७७. यह प्रथम भाष्यगाथा पूर्वोक्त सभी पृच्छाओंका निर्णय करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। अब इसमें आये हुए पदोंके किंचित् अर्थको प्ररूपणा करेंगे। वह जैसे-'लेस्सा साद असादे च' ऐसा कहनेपर छहों लेश्याओं और साता असातावेदनीयके उदयोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय हैं। उक्त स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस झपकके नियमसे पाये जाते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-उक्त स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्मोंके इस पकके अभजनीयपनेका नियम किस कारणसे है ? समाधान-क्योंकि तिर्यंचों और मनुष्योंमें लेश्याके भेदोंका और साता-असाताके उदयका अन्तर्मुहुर्तमें परिवर्तनका नियम देखा जाता है। तथा अवस्थित लेश्यावाले देव और नारकियोंमें प्रविष्ट हए जीवको अपेक्षा अन्यथाभाव सम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कर्मस्थितिमात्र काल तक उन गतियोंमें अवस्थान असम्भव होनेसे तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर छहों लेश्याओंमें परावर्तन करनेवाले जीवके सब लेश्याओंमें संचित हुए कोका क्षपकश्रेणिमें अवश्य हो पाये जानेरूप नियम देखा जाता है। विशेषार्थ-देवगति और नरकगतिमें यद्यपि अवस्थित लेश्याएं पायी जाती हैं, परन्तु कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर जो जीव इन गतियोंमें जन्म न लेकर मात्र तिर्यंचति और मनुष्यगतिमें हो रहे और अन्तमें उसी कालके भीतर क्षपकश्रेणिपर आरोहण करे यह नियमसे सम्भव है। साथ ही इन गतियोंमें यथायोग्य छहों लेश्याएँ नियमसे पायी जाती हैं, क्योंकि इन गतियोंमें उनमेंसे प्रत्येक लेश्याका काल ही अन्तर्मुहूर्त है। इसलिए तो छहों लेश्याओंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह निश्चित होता है। इसी न्यायसे सातावेदनीय और असातावेदनीयके उदयकी अपेक्षा भी समझ लेना चाहिए। ६३७८. 'कम्म सिप्प लिंगे च' ऐसा कहनेपर सब कर्मोमें, सब शिल्पोंमें और सभी लिंगग्रहणोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका-इन स्थानोंमें बद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय किस कारणसे हैं ? समाधान-क्योंकि इन स्थानोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अवश्य ही होते हैं ऐसा नियम नहीं है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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