SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पढमभासगाहा १३९ सर्व्वाल संचयस्स भयणिज्जत्तावहारणमेदं घडवि त्ति णासंकणिज्जं; पासंडिलिंगाणमेव सवियारaerodre विवविखयत्तादो। ण च जिर्णालगग्गहणे सविधारवेसग्गहणमत्यि; तस्स जादरूवसरू - वादो। तो सव्वे परपासंडिलिगेसु पुग्वबद्धाणं भयणिज्जत्तमेवेत्ति सिद्धं । $ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' एवं भणिदे तिरियलोयसंचयं धुवं काढून सेसखेत्तम्हि अघोलोगे उड्डलोगे च वट्टमाणेण संचिदकम्मस भज्जतं होइ ति सुत्तत्यो । सुत्ते एवंविहविसेस - णिसाभावे कघमेसो विसेसो विण्णादुं सविकज्जवे ? ण, वक्खाणावो तहाविहविसेसपडिवत्तीवो । ६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' एवं भणिदे समाविभागो नाम कालविभागो । सो वुण विहो ओसप्पिणि उस्सप्पिणिभेदेण । तत्थ एक्केत्रको सुसमसुसमाविभेवेण छग्विहो होषि । सत्य सव्वत्य वट्टमाणेण बद्धाणि कम्माणि णियमा अत्थि, तदो ताणि ण भयणिज्जाणि त्ति सुत्तत्थो । कुदो वुण तेसिमभयणिज्जत्तमिदि चे ? कम्मद्विंदिअब्भंतरे ओसप्पिणि उस्सप्पिणिकालाणं सांत भेदाणं परिवत्तणनियमदंसणा दो । संपहि एवंविहमे दिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ शंका- इस क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग अवश्य ही सम्भव देखा जाता है, इसलिए सब लिंगों में संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह नियम नहीं घटित होता ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विकारी वेशवाले पाखण्डी लिंग ही यहां विवक्षित हैं । और जिनलिंग के ग्रहण में विकारी वेशका ग्रहण होता नहीं, क्योंकि वह यथाजातस्वरूप होता है, इसलिए सब परमतोंद्वारा स्वीकृत पाखण्डी लिंगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह सिद्ध हुआ । ६ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' ऐसा कहनेपर तिर्यग्लोकके संचयको ध्रुव करके शेष अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में विद्यमान जीवके संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह इस सूत्रवचनका अर्थ है । शंका – सूत्र में इस प्रकारके विशेषका निर्देश नहीं किया, अतः इस विशेषको जानना कैसे शक्य है ? समाधान- नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे इस प्रकार के विशेषका ज्ञान हो जाता है । ६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' ऐसा कहनेपर समाविभागका अर्थ कालका विभाग है । और वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे एक-एक का सुषमासुषमा आदिके भेदसे छह प्रकारका है। उन सब कालोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म नियमसे हैं । इसलिए वे भजनीय नहीं हैं यह इस सूत्रवचनका अर्थ है । शंका- इन कालोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय कैसे हैं ? समाधान क्योंकि कर्मस्थिति के भीतर अपने अन्तर्भेदोंके साथ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालोंके परिवर्तनका नियम देखा जाता है । इसलिए इन कालों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह सिद्ध हो जाता है । अब इस गाथा के इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy