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खवगसेढीए छट्ठमूलगाहाए पढमभासगाहा
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सर्व्वाल संचयस्स भयणिज्जत्तावहारणमेदं घडवि त्ति णासंकणिज्जं; पासंडिलिंगाणमेव सवियारaerodre विवविखयत्तादो। ण च जिर्णालगग्गहणे सविधारवेसग्गहणमत्यि; तस्स जादरूवसरू - वादो। तो सव्वे परपासंडिलिगेसु पुग्वबद्धाणं भयणिज्जत्तमेवेत्ति सिद्धं ।
$ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' एवं भणिदे तिरियलोयसंचयं धुवं काढून सेसखेत्तम्हि अघोलोगे उड्डलोगे च वट्टमाणेण संचिदकम्मस भज्जतं होइ ति सुत्तत्यो । सुत्ते एवंविहविसेस - णिसाभावे कघमेसो विसेसो विण्णादुं सविकज्जवे ? ण, वक्खाणावो तहाविहविसेसपडिवत्तीवो ।
६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' एवं भणिदे समाविभागो नाम कालविभागो । सो वुण विहो ओसप्पिणि उस्सप्पिणिभेदेण । तत्थ एक्केत्रको सुसमसुसमाविभेवेण छग्विहो होषि । सत्य सव्वत्य वट्टमाणेण बद्धाणि कम्माणि णियमा अत्थि, तदो ताणि ण भयणिज्जाणि त्ति सुत्तत्थो । कुदो वुण तेसिमभयणिज्जत्तमिदि चे ? कम्मद्विंदिअब्भंतरे ओसप्पिणि उस्सप्पिणिकालाणं सांत भेदाणं परिवत्तणनियमदंसणा दो । संपहि एवंविहमे दिस्से गाहाए अत्थं विहासेमाणो उवरिमं विहासागंथमाढवेइ
शंका- इस क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग अवश्य ही सम्भव देखा जाता है, इसलिए सब लिंगों में संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह नियम नहीं घटित होता ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि विकारी वेशवाले पाखण्डी लिंग ही यहां विवक्षित हैं । और जिनलिंग के ग्रहण में विकारी वेशका ग्रहण होता नहीं, क्योंकि वह यथाजातस्वरूप होता है, इसलिए सब परमतोंद्वारा स्वीकृत पाखण्डी लिंगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके भजनीय हैं यह सिद्ध हुआ ।
६ ३७९. 'खेत्तम्हि य भज्जाणि दु' ऐसा कहनेपर तिर्यग्लोकके संचयको ध्रुव करके शेष अधोलोक और ऊर्ध्वलोक में विद्यमान जीवके संचित हुआ कर्म इस क्षपकके भजनीय है यह इस सूत्रवचनका अर्थ है ।
शंका – सूत्र में इस प्रकारके विशेषका निर्देश नहीं किया, अतः इस विशेषको जानना कैसे शक्य है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे इस प्रकार के विशेषका ज्ञान हो जाता है ।
६ ३८०. 'समाविभागे अभज्जाणि' ऐसा कहनेपर समाविभागका अर्थ कालका विभाग है । और वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे दो प्रकारका है। उनमेंसे एक-एक का सुषमासुषमा आदिके भेदसे छह प्रकारका है। उन सब कालोंमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्वबद्ध कर्म नियमसे हैं । इसलिए वे भजनीय नहीं हैं यह इस सूत्रवचनका अर्थ है ।
शंका- इन कालोंमें पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके अभजनीय कैसे हैं ?
समाधान क्योंकि कर्मस्थिति के भीतर अपने अन्तर्भेदोंके साथ अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालोंके परिवर्तनका नियम देखा जाता है । इसलिए इन कालों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपकके नियमसे पाये जाते हैं यह सिद्ध हो जाता है ।
अब इस गाथा के इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं