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________________ जयघवला सहिदे कसायपाहुडे माणवेदगद्धाए सादिरेयतिभागमेती एसा पढमट्टिवी तो वि' विसेसाहियत्तमजोएदूण तत्तिभागमेती एसा पढमट्ठिदी होदिति सुत्ते भणिदं । * तदो माणस्स पढमकिटिं वेदेमाणो तिस्से पढमकिट्टीए अंतर किट्टीणमसंखेजे भागे वेदयदि । २८४ ६७१५. सुगममेवं सुतं । * तदो उदिण्णाहितो विसेसहीणाओ बंधदि । ७१६. कुदो ? वेदिज्जमाण किट्टीणं हेट्टिमोवरिमासंखेज्ज विभाग विसय किट्टीओ मोत्तूण सेसमज्झिमबहुभाग सरूवेण बंधस्स पवृत्तिदंसणावो । संपहि एदम्मि चेव माणवेदगपढमसमए कहतदियसंग किट्टीए वकबंधमुच्छिट्टावलियं च मोत्तूण सेसासेसचिराणसंतकम्मदव्वं माणपढमसंगह किट्टी हवेण परिणमइ, आणुपुव्वीसंक्रमणियमवसेण संकमंतस्स तस्स तदविरोहावो । एवं कोहादो आगंतून माणसरूवेण परिणमिय हिदि-पवेससंतकम्मं जाव संकमणावलिया दिक्कतं ण होइ ताव उदयादिकिरियाणं नागच्छदि ति णिच्छेयध्वं । कोहपदेसबंधो माणसरूवेण परिणममाणो कि माणपढमसंगह किट्टीए उवरिमभागे तिस्से चेव अठव किट्टोओ होवूण चेट्ठदि आहो तिस्से ट्ठा वित्तिज्जमाणापुण्य किट्टीसरूवेण परिणमदि, किं वा पुव्वकिट्टोसु चैव सरिसधणियसरूवेण वेदककालके त्रिभागप्रमाण होती है यह निर्देश किया है। यद्यपि मानवेदकालके साधिक तृतीय भागप्रमाण यह प्रथम स्थिति है तो भी विशेष अधिकको न गिनकर यह प्रथम स्थिति तृतीय भागप्रमाण होती है यह सूत्र में कहा गया है । * तदनन्तर मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करनेवाला क्षपक जीव उस मानकी प्रथम कृष्टिको अन्तरकृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन करता है । ६७१५. यह सूत्र सुगम है । * तथा उदीर्ण हुई कृष्टियोंसे विशेष होन कृष्टियोंका बन्ध करता है । $ ७१६. क्योकि वेदी जानेवाली कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागविषयक कृष्टियोंको छोड़कर शेष मध्यम बहुभागरूपसे ही बन्धकी प्रवृत्ति देखो जाती है। अब मानवेदक के इसी प्रथम समय में क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिके नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिको छोड़कर शेष समस्त पुराना सत्कर्म द्रव्य मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन करता है, क्योंकि आनुपूर्वीसंक्रमके नियमके कारण उस संक्रम करनेवाले कर्मका उस तरहसे प्रवृत्त होनेमें विरोधका अभाव है । और इस प्रकार क्रोधमेंसे आकर तथा मानरूपसे परिणमन करके स्थिति और प्रदेशसत्कर्मकी जबतक संक्रमणावलि समाप्त नहीं होती है तबतक वह द्रव्य उदयादि क्रियाओंको नहीं प्राप्त होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए। शंका — क्रोधकषायका प्रदेशबन्ध मानरूपसे परिणमन करता हुआ क्या मानसंज्वलनको प्रथम संग्रहकृष्टि उपरिम भाग में उसीको अपूर्व कृष्टियां होकर अवस्थित रहता है या उसकी नीचे १. आ. प्रतो द्विदि सा तो वि इति पाठः । २. आ. प्रतौ सुत्ते णिद्दिट्ठ भणिदं इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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