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________________ खवगसेढीए माणपढमकिट्टीविसयकपरूवणा २८६ विहंजिदूण णिवददि ति पुच्छिदे ण ताव माणपढमसंगहकिट्टीए उवरिमभागे अपुर्वकिट्टोओ होदूण परिणमदि। किं कारणं ? जेण 'वेदिज्जमाणपढमसंगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा बसंति' त्ति भणिदं तेण कारणेण पुस्विल्लाए माणपढमसंगहकिट्टीए उवरि अपुवकिट्टीसरूवं होदूण णो चिटदि, तहा संते कोहवेदगचरिमसमम्मि विट्ठमाणउक्कस्सबंधकिट्टीदो पढमसमयमाणवेदगस्स बंधे उक्कस्समाणकिट्टीए अणंतगुणाए होवव्वं । ण चेदमिच्छिज्जदे; समयं पडि संजलणाणुभागबंधोदयाणमणंतगुणहाणिपरिणामं मोतूण पयारंतरासंभवादो। तदो तिस्से पुवकिट्टीसु सरिसधणियसरूवेण तत्तों हेटा च अपुवकिट्टोसरूवेण कोहपदेसग्गस्स परिणामो होदि त्ति घेत्तव्वं । तत्थ वि पुवकिट्टीसहवेण थोवयरं चेव दव्वं परिणमइ अपुवकिट्टीसहवेणेव बहुअं दव्वं परिणमइ, कोहतदियसंगहकिट्टीआयामस्स अविणट्टसरूवेणेव माणपढमसंगहकिट्टीए हेटा अपुवकिट्टीआयारेण परिणमियूण समयाविरोहेणावट्ठाणणियमदंसणादो। अदो चेव पुग्विल्लसमये माणपढमसंगहकिट्टीए अंतरकिट्टीहितो संपहियमाणपढमसंगहकिट्टीए संतरकिट्टिअद्धाणं सोलसगुणमेतं होदूण चिट्ठदि ति बटुवं । एस विही उवरि वि जत्थ संभवइ तत्थ जोजेयव्यो। ७१७. एवं च सोलसगुणमेत्तायाम पत्तमाणपढमसंगहकिट्टीए हेढा उरिं च असंखेज्जविभागं मोरूण पुणो मज्झिमकिट्टीसरूवेण असंखेज्जे भागे उदीरेदि । उविण्णाणं पि हेट्टिमोवरिमासंखेज्जदि निष्पन्न होनेवाली अपूर्व कृष्टिरूपसे परिणमन करता है या क्या पूर्व कृष्टियोंमें ही सदृश धनरूपसे विभक्त होकर पतित होता है ? समाधान-ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं कि मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके उपरिम भागमें अपूर्व कृष्टियां होकर तो परिणमन नहीं करता है। क्योंकि जिस कारण 'वेदी जानेवाली मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभागरूपसे बंधती है' ऐसा कहा है उस कारण पहिलेको मानसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके ऊपर अपूर्व कृष्टिस्वरूप होकर स्थित नहीं होती है, क्योंकि वैसा होनेपर क्रोधवेदकके अन्तिम समयमें दिखनेवाली उत्कृष्ट बन्धकृष्टिसे प्रथम समयवर्ती मानवेदकके बन्धमें उत्कृष्ट मानकृष्टिको अनन्तगुणी होनी चाहिए, परन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समयमें संज्वलन कषायोंका अनुभागबन्ध और अनुभागउदयके अनन्तगुणहानिरूप परिणामको छोड़कर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। इसलिए उसकी पूर्व कृष्टियोंमें सदृश धनरूपसे और उसके नीचे अपूर्व कृष्टिरूपसे क्रोधके प्रदेशपुंजका परिणाम होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। उसमें भी पूर्वकृष्टिरूपसे स्तोकतर ही द्रव्य परिणमन करता है तथा अपूर्वकृष्टिरूपसे बहुत द्रव्य परिणमन करता है, क्योंकि क्रोधको तृतीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी आयामके अविनष्ट स्वरूपसे हो मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिके आकारसे परिणमन करके समयके अविरोधपूर्वक, अवस्थानका नियम देखा जाता है और इसीलिए पहिले समयमें मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तराष्टियोंसे वर्तमान मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंका आयाम सोलहगुणा हो जाता है ऐसा जानना चाहिए। यही विधि ऊपर भी जहाँ सम्भव है वहाँ योजित कर लेनी चाहिए। ७१७. और इस प्रकार सोलहगुणी प्रमाण आयामको प्राप्त मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिके नीचे और ऊपर असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे असंख्यात बहुभागको उदीरित करता है। उदोरित किये गये असंख्यात बहुभागके भो नीचे और ऊपर असंख्यात बहभागको
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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