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________________ खवगसेडीए संगहकिट्टिबंधविमयपरूवणा २७५ चेव बंधवि त्ति णियमो, उदाहो ण तहा, वत्तव्वमिदि एदेण पुच्छा कदा होइ। संपहि एदस्सेव पुच्छाणिद्देसस्स फुडीकरण?मिदमाह * किय खु। ६६८५. कथं खलु स्यात्, को न्वत्र निर्णय इति पूर्वोक्तस्यैव प्रश्नस्य स्फुटीकरणपरमेतद्वाक्यम्। * समासलक्खणं भणिस्सामो। $ ६८६ लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं निर्णयविधानमित्यर्थः, तत्संक्षेपत एव व्याकरिष्याम इत्युक्तं भवति । * जस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि, सेसाणं कमायाणं पढमकिट्टीआ बंधदि। ६६८७. जस्स कसायस्स जं किट्टि वेदयदि पढमं विदियं तदियं वा, तस्स तमेव बंधदि, सेसाणं पुण कसायाणमेण्हिमवेदिज्जमाणाणं पढमसंगहकिट्टीओ चेव बंधदि तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति वुत्तं होइ। तदो कोहविदियकिट्टि वेदेमाणो एसो कोहस्स विदियकिट्टि बंधदि, माण-मायालोभाणं पुण पढमसंगहकिट्टीओ चेव बंधदि । एवमुवरिकिट्टीओ वि वेदेमाणस्स पयदत्थजोजणा कायव्वा ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। संपहि कोहविदिकिट्टीवेदगस्स पढमसमये दिस्स ammar यह नियम है या उक्त प्रकारका नियम नहीं है, यह कहना चाहिए इस प्रकार इस सूत्र द्वारा पृच्छा की गयो है। अब इसी पृच्छाके निर्देशको स्पष्ट करनेके लिए इस सूत्रको कहते हैं * इस विषयमें किस प्रकार है ? ६६८५. इस विषयमें किस प्रकार है-इस विषयमें क्या निर्णय है इस प्रकार पूर्वोक्त प्रश्नका ही स्पष्टीकरणपरक यह वाक्य है। * आगे संक्षेपमें इसका लक्षण कहेंगे। १६८६. जिस द्वारा कोई भी वस्तु लक्षित की जाती है वह लक्षण कहलाता है, विवक्षित वस्तुके निर्णयका विधान करना यह इसका भावार्थ है, उसका संक्षेपमें ही व्याख्यान करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * जिस कषायको जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस कषायको उस संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टिका बन्ध करता है। ६६८७. जिस कषायकी प्रथम, द्वितीय या तृतीय जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायको उसी संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है, किन्तु जिन कषायोंका इस समय वेदन नहीं करता उन कषायोंकी तो प्रथम संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है, क्योंकि उनमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करता हुआ यह क्षपक जोव क्रोधको दूसरी संग्रह कृष्टिको बांधता है, परन्तु मान, माया और लोभको प्रथम संग्रह कृष्टियोंको ही बांधता है। इसी प्रकार उपरिम कृष्टियोंका भी वेदन करनेवाले इस जीवके प्रकृत अर्थकी योजना कर लेनी चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब क्रोध संज्वलनकी दूसरी कृष्टि
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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