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________________ जय धवलासं हिंदे कसायपाहुर्डे माणाणमेक्कारसहं संगहकिट्टीणमंतरकिट्टीसु कदमाओ थोवाओ कदमाओ च बहुगोओ त्ति एवस अर्थावसेसस्स विद्धारणट्ठमुवरिमपबंधमाढवेदि २७६ * कोधविदियकिट्टीए पढमसमये वेदगस्स एक्कारससु संगह किट्टीसु अंतर किट्टीणमप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । ६ ६८८. सुगमं । * त जहा । ६८९. सुगमं । * सव्वत्थोवाओ माणस्स पढमाए संगहकिट्टीए अंतरकिट्टीओ । $ ६९०. एत्थ पढमसंगह किट्टि त्ति भणिदे वेदगपढमसंगहकिट्टीए गहणं काय, किट्टिवेवगेण पयदत्तादो । तदो माणम्स पढमसंगहकिट्टीए अवयव किट्टीओ अभवसिद्धिएहि अनंतगुण-सिद्धाणंतभागमेत्तीओ होवूण सव्वत्थोवाओ जादाओ, कुदो एदास थोवभावो परिच्छिज्जदे ? थोवयरदग्वेण णिवत्तिदत्तादो । * विदिया संगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । ६९१. कुदो ? दव्वविसेसादो । केत्तियमेत्तो विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिओ, सत्थाणविसेसस्स पुण्यं तहाभावेण समत्थियत्तादो । वेदक के प्रथम समय में दृश्यमान ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी अन्तर कृष्टियों में कौन सो या कितनी कृष्टियां थोड़ी हैं और कितनी कृष्टियां बहुत हैं इस प्रकार इस अर्थविशेषका निर्धारण करनेके लिए आगे प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * क्रोधसंज्वलनकी दूसरी कृष्टिके प्रथम समय में वेदकको ग्यारह संग्रह कृष्टियों में अन्तर कृष्टियोंके अल्पबहुत्वको बतलावेंगे । ९ ६८८. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे । $ ६८९. यह सूत्र सुगम है । * मान संज्वलनकी प्रथम समय में संग्रह कृष्टिकी अन्तर कृष्टियाँ सबसे थोड़ी हैं । $ ६९०. यहाँ सूत्र में 'पढमसंग किट्टीए' ऐसा कहनेपर वेदककी प्रथम संग्रह कृष्टिका ग्रहण करना चाहिए. क्योंकि कृष्टिवेदक प्रकृत है । अतः मान संज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टियाँ अभव्योंसे अनन्तगुणो या सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण होकर सबसे थोड़ी हो गयी हैं । शंका- इनका स्तोकपना कैसे जाना जाता है ? समाधान - क्योंकि इनको स्तोकतर द्रव्यसे रचना हुई है। * दूसरे समय में संग्रह कृष्टिको अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक हैं । $ ६९१. क्योंकि इनमें द्रव्यविशेषका निक्षेप हुआ है । शंका - विशेषका प्रमाण कितना है ? समाधान - विशेषका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागके प्रतिभागरूप है, क्योंकि स्वस्थान विशेषका पहले उसीरूपमें समर्थन कर आये हैं ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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