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________________ (२२) मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टि में तथा लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है । मायाकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज मायाकी तीसरी और लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि में संक्रमित होता है । तथा मायाकी तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है। लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभकी दूसरी और तीसरी संग्रह कृष्टियों में संक्रमित होता है । तथा लोभकी दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होता है । लोभको तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज किसी अन्यमें संक्रमित न होकर उसका स्वमुखसे ही विनाश होता है। यह संक्रमणकी परिपाटी क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदक काल के समय भी होती है ऐसा वहाँ जानना चाहिये। साथ ही यह भी एक नियम है कि जिस समय जिस कषायकी जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उस समय उस कषायको उग संग्रह कृष्टिका बन्ध करता है तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टिका बन्ध करता है। क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करने वाले क्षपक जीवके जो ११ संग्रहकृष्टियां होती हैं उनमें अन्तर कृष्टियोंका अल्प बहुत्व किस प्रकार होता है इसे स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि मानकी प्रथम हष्टि में अन्तर कृष्टियां सबसे थोडी होती हैं। मानकी दसरी संग्रह कष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं। मानकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती है। क्रोधको तीरारी संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं। मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती हैं। मायाकी दूसरी संग्रह कृष्टि में अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती हैं । मायाकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती है। लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियाँ विशेष अधिक होती है। लोभको दूसरी संग्रहकृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती है। लोभकी तीसरी संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां विशेष अधिक होती हैं । क्रोधकी दूसरी संग्रह कृष्टि में दूसरी अन्तर कृष्टियाँ संख्यातगुणी होती हैं । इनमें प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुंजका अल्पबहुत्व भी इसी प्रकार जानना चाहिये ।। क्रोधसंज्वलनका दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जो प्रथम स्थिति होती है उसमें आवलि प्रत्यावलि प्रमाण काल शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तथा उसकी एक समय अधिक प्रथम स्थितिके शेष रहने पर क्रोधकी द्वितीय कृष्टिका अन्तिम समयवृती वेदक होता है । उस समय संज्वलनका स्थितिबंध दो माह और कुछ कम बीस दिवस प्रमाण होता है। तीन घातिकोका स्थितिबंध बर्षपृयक्त्व प्रमाण होता है। शेष कर्मोंका स्थितिबंध संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है । संज्वलनोंका स्थिति सत्कर्म पाँच वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माह प्रमाण होता है। तीन घातिकोका स्थितिसकर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म असंख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। उसके बाद अनन्तर समयमें क्रोधकी तीसरी कृष्टिमें से प्रदेशजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उस समय क्रोवकी तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियोंका असंख्यात बहभाग उदीर्ण होता है । तथा उन्हीं के असंख्यात बहुभागका बंध करता है। इसकी विधि दूसरी कृष्टिका वेदन करने वालेके समान जानना चाहिये। इसकी प्रथम स्थिति आवलि और प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहनेपर वह अन्तिम समयवृती वेदक होता है। उस समय वह जघन्य स्थितिका उदीरक होता है। उस समय संज्वलनोंका स्थिति बन्ध पूरा दो माह प्रमाण होता है । तथा सत्कर्म पूरा चार माहप्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें मानकी प्रथम कृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। यहाँपर मान वेदकका जो सम्पूर्ण काल है उस कालके तृतीय भाग प्रमाण प्रथम स्थिति होती है । उसके बाद मानकी प्रथम कृष्टिका वेदन करने वाला वह जीव उस प्रथमकृष्टिको अन्तर कृष्टियोंके असंख्यात बहभागका वेदन करता
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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