SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है तथा जितमी कृष्टियोंका वेदन करता है उनसे कुछ हीन कृष्टियोंका बन्ध करता है। तथा शेष कषायोंकी प्रथम संग्रहकृष्टियोंका बन्ध करता है। इसकी विधि भी क्रोधकी प्रथम कृष्टिके समान जाननी चाहिये। इसकी प्रथम स्थिति जब एक समय अधिक एक आवलि प्रमाण शेष रह जाती है तब तीनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक महीना और अन्तर्महर्त कम बीस दिवस प्रमाण होता है। तथा स्थितिसत्कर्म तीन वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम चार माह प्रमाण होता है । __तदनन्तर समयमें मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिमेंसे प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है । इसकी भी विधि पूर्वके समान जानना चाहिये। जब कि इस प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहता है तब संज्वलनोंका स्थितिबन्ध एक माह और कुछ कम दस दिवस प्रमाण होता है। और सत्कर्म दो वर्ष तथा कुछ कम आठ माह प्रमाण होता है। उसी समय यह मानका अन्तिम समयवृत्ती वेदक होता है। तब तीनों संज्वलनोंका स्थितिबंध पूरा एक माह प्रमाण होता है। तथा स्थिति सत्कर्म पूरा दो वर्ष प्रमाण होता है। इसके बाद तदनन्तर समयमें मायाका प्रथम संग्रह कृष्टिके प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये। उस समय दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध कुछ कम पचीस दिवस प्रमाण होता है। तथा स्थिति सत्कर्म एक वर्ष और कुछ कम आठ माह प्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये। उस समय इसका स्थितिबन्ध कुछ कम बीस दिवस प्रमाण होता है तथा स्थिति सस्कर्म कुछ कम सोलह माह प्रमाण होता है। तदनन्तर मायाको तीसरी संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उसकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक पूर्ववत् विधि जाननी चाहिये। उस समय मायाका अन्तिम समय वेदक होता है। तब दो संज्वलनोंका स्थितिबंध पूरा आधा माहप्रमाण होता है तथा स्थिति सत्कर्म पूरा एक वर्ष प्रमाण होता। तीन घातिकर्मोका स्थितिबन्ध माहपृथक्त्व प्रमाण होता है तथा उम्हींका स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है। शेष कौंका स्थिति सत्कर्म असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है। तदनन्तर समयमें लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टि में से प्रदेश पुंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। इसकी प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक वही विधि जाननी चाहिये । उस समय लोभ संज्वलनका स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। तथा स्थितिसत्कर्म भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। इन घाति कोका स्थितिबंध दिवसपृथक्त्व प्रमाण होता है। शेष कोका स्थितिबन्ध वर्षपृथकत्व प्रमाण होता है। घातिकर्मों का स्थितिसत्कर्म संख्यात हजार वर्ष प्रमाण होता है तथा शेष कर्मोका स्थितिसत्कर्म असंख्यात वर्षप्रमाण होता है । तदनन्तर समयमें लोभकी दूसरी संग्रहकष्टिमेंसे प्रदेश पंजका अपकर्षण करके प्रथम स्थिति करता है। उसी समय लोभकी दूसरी और तीसरी संग्रहकुष्टियोंमेंसे प्रदेशजका अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंको करता है। उनको लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिके नीचे करता है तथा क्रोधकी प्रथम सग्रहकृष्टि जिस प्रकारको है उसी प्रकारकी इसे जानना चाहिये । इसके बाद प्रथम समय में की गई सूक्ष्मसाम्परागिक कृष्टियां कितनी होती हैं और प्रथमादि समयोंमें वे कितनी की जाती है . अल्पबहुत्वविषिसे इसका निर्देश करके उनमें दिये जानेवाले प्रदेशपुंजका निर्देश किया
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy