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________________ खवगसेढीए चउत्थमूलगाहाए समुक्कित्तणा * एतो चउत्थीए मूलगाहाए समु विकत्तणा । ६ ३०६. तदियमूलगाहाविहासणाणंतरमेत्तो चउत्योए मूलगाहाए समुक्कित्तणा कायव्या ति वृत्तं होइ । * तं जहा । ६ ३०७. सुगमं । (१२९) कदिसु गदी भवेसु य हिदि-अणुभागेसु वा कमाए । कम्माणि पुव्वबद्धाणि कदीसु किट्टीसु च हिंदीसु ॥ १८२ ॥ ११३ ९३०८. एत्तो पहुडि तिष्णि मूलगाहाओ गदियादिमग्गणासु जत्थतस्थाणुपुथ्वीए पुवबद्धाणं कम्मार्ण खवगसेढोए मयणिज्जाभयणिज्ज सरूवेणत्थित्तगत्रे सणमोइण्गाओ । तत्थ ताव किट्टीओ करेमाणस्स वेदेमाणस्स च खवगस्स गदि इंदिय-काय - कसाय मग्गणासु संचिदाणं पुण्वबद्धाणमुक्कस्सा णुक्कस्सट्टिदि अणुभागसं चिदाणं च संभवासंभवणिण्णयविहाणमेसा चउत्थी मूलगाहा समोइण्णा । तं जहा - 'कविसु गदीसु' केत्तियमेत्तीस गदीसु पुग्धबद्धा कम्मपदेसा दस गस्स संभवति, किमेक्किस्से दोसु तिसु चसु वा त्ति एसो पढमो पुच्छाणिद्देसो गदिमग्गणाविस पुम्बबद्वाणं कम्माणं भयणिज्जाभयणिज्जभावगवेसणे पडिबद्धो । तत्य चतुण्हं गदी मेग-दु-ति-चदुसंजोगेण पण्णारसपण्हभंगा वत्तव्या । अब इससे आगे चौथी मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । § ३०६. तीसरी मूलगाथाकी विभाषा करनेके बाद चौथी मुलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * वह जैसे । ६ ३०७. यह सूत्र सुगम है । (१२९) कितनी गतियों, भवों, स्थितियों, अनुभागों और कषायोंमें तथा तत्सम्बन्धी कृष्टियों और उनकी स्थितियोंमें संचित इस पूर्वबद्ध कर्म क्षपकके पाये जाते हैं ॥१८२॥ $ ३०८. इससे आगे तीन मूलगाथाएं गति आदि मार्गणाओंमें यत्र-तत्रानुपूर्वी से पूर्वबद्ध कर्मो क्षपकश्रेणिमें भजनीय और अभजनीयस्वरूपसे अस्तित्वको गवेषणा करनेके लिए अवतीर्ण हुई हैं। वहाँ सर्वप्रथम कृष्टियोंको करनेवाले और वेदन करनेवाले क्षाकके गति, इन्द्रिय, काय और कषाय मागंणाओं में संचित हुए पूर्वबद्ध उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशों तथा स्थिति और अनुभागों के सम्भव और असम्भवका निर्णय करनेके लिए यह चौथी मूल गाथा अवतीर्ण हुई है । वह जैसे'दिसु गदी' कितनी गतियों में पूर्वंबद्ध कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव हैं, क्या एक गतिसम्बन्धी, दो गतिसम्बन्धी तीन गतिसम्बन्धी या चारों गतिसम्बन्धी कर्मप्रदेश इस क्षपकके सम्भव हैं इस प्रकार यह प्रथम पृच्छानिर्देश गतिमार्गंणाके विषय में पूर्वबद्ध कर्मो के भजनीय और अभजनीयपकी गवेषणा करनेमें प्रतिबद्ध है। वहीं चारों गतियोंके एक संयोग, दो संयोग, तीन संयोग और चार संयोगसे प्रश्न रूप में पन्द्रह भंग कहने चाहिए। विशेषार्थ - नियम यह है १६ में से १ अंक कम करनेपर कुल तीनसंयोगी ४ और चारसंयोगी १ करके यहाँ पृच्छा करनी चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । १५ कि चार बार २ अंक रखकर परस्पर गुणा करके लब्ध १५ भंग उत्पन्न होते हैं । उनमें एकसंयोगी ४, द्विसंयोगी ६, भंग होते हैं। इस प्रकार उक्त विधिसे १५ विकल्प उत्पन्न
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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