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________________ खवगसेढीए बज्झमाणपदेसग्गादो पिप्पज्जमाणापुव्व किट्टीणं परूवणा २६१ किट्टी दट्ठव्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्यसमुच्चओ । तत्थ दिवङ्गुणहाणि तिभागमेत्तद्वाणं गंतूण एक्किस्से अव किट्टीए णिव्वत्तिदंसणादो। एत्थ पुण ओकड्डुक्कडुणभागहारमेत्तद्वाणं गंतूण mahaare अवकट्टीए णिव्वत्तिदंसणादो । तं जहा , ६५२. एगसमयपबद्धं ठबिय पुणो एवस्स दिवङ्गुणहाणिमेत्तगुणगारं ठवेयूण एक्स्स ट्टा तिष्णि वाणि भागहारतेण ठवेयग्वाणि । एवं ठविदे जस्स वा तस्स वा एगकसायरस एगसंगहकिट्टीपदेसग्गमागच्छदि । संपहि एवंविदव्वस्स जदि सयलकिट्टोअद्धाणं लब्भइ तो एगसमयपबद्धमेत्तणवकबंधदव्वत्स केत्तियाओ अपुष्य किट्टोंओ लहामगे त्ति तेरासियं काढूण पमाणेण फल गुणि दिच्छाए ओवट्टिदाए ३/९/१ दिवङ्गुणहाणितिभागेण एगसंग्रह किट्टी अद्धाणं खंडेगखंडमेत्तीओ अठवकिट्टीओ बंधेणे निव्वत्तिज्जमाणाओ आगच्छति । एवासि तेरासिय• विहाणेणद्वाणं साहेयब्बं; तस्सेसा ठवणा : | ९ | १ एवं ठविय तेरासियकमेणोवट्टेदूण साहिद्वाणमेत्तियं होइ ४ । एवं च असंखेज्जपलिदोषमपढमवग्गमूलपमाणमिदि घेत्तम्वं; दिवङ्गुणहाणितिभागपमाणत्तादो । ६५३. संपहि ओकड्डियूण गहिदपदेसग्गमस्सियूण भण्णमाणे एगसमयपबद्धं ठविय पुणो कृष्टि जाननी चाहिए इस प्रकार यह यहाँपर सूत्रका समुच्चयरूप अर्थं है। वहां डेढ़ गुणहानि के त्रिभागप्रमाण स्थान जाकर एक अपूर्व कृष्टिकी निष्पत्ति देखी जाती है । परन्तु यहाँपर अपकर्षणभागहारप्रमाण स्थान जाकर एक-एक अपूर्वं कृष्टिकी निष्पत्ति देखी जाती है । वह जैसे ६६५२. एक समयप्रबद्धको स्थापित करके पुन: इसका डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार स्थापित करके इसके नीचे तीन अंक भागहाररूपसे स्थापित करने चाहिए। इस प्रकार स्थापित करनेपर जिस किसी एक कषायकी एक संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज आ जाता है । अब इस प्रकारके द्रव्यका यदि समस्त कृष्टि-स्थान ( आयाम ) प्राप्त होता है तो एक समय प्रबद्धमात्र नवबन्ध द्रव्य में कितनी अपूर्वं कृष्टियां प्राप्त करेंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर डेढ़ गुणहानिके त्रिभाग १२ + ३ = ४, से एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ को खण्डित करके एक खण्डप्रमाण : अपूर्व कृष्टियों बन्धसे निर्वर्त्यमान होकर प्राप्त होती हैं । यहाँ इनका त्रैराशिक विधिसे अध्वान साधकर ले आना चाहिए। उसकी यह स्थापना है - है, ९, १ । इस प्रकार स्थापित करके त्रैराशिकक्रमसे अपवर्तन करके साबित हुआ अध्वान इतना होता है –४ । और यह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण होता है। ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि यह डेढ़ गुणहानिके त्रिभागप्रमाण है । उदाहरण - अंक संदृष्टि के अनुसार डेढ़ गुणहानि = १२, संग्रह कृष्टि अध्वान ९, डेढ़ गुणहानिका त्रिभाग ४ । यहाँ एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ में डेढ़ गुणहानि के त्रिभागसे भाजित करनेपर एक संग्रह कृष्टिमध्वानके भीतर प्रमाण अपूर्व कृष्टियां प्राप्त हुईं। पुनः यहाँ एक अपूर्व कृष्टिका अध्वान प्राप्त करनेपर एक संग्रह कृष्टिके अध्वान ९ में अपूर्व कृष्टियों का भाग देनेपर १ - ४ एक पूर्व कृष्टिका अध्वान प्राप्त हुआ । अर्थसंदृष्टिको अपेक्षा देखनेपर यह पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण प्राप्त होता है ऐसा प्रकृतमें समझना चाहिए । = $ ६५३. अब अपकर्षण करके ग्रहण किये गये प्रदेशपुंजका आश्रय करके कथन करनेपर
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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