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________________ ३२० जयषवलासहिदे कसायपाहुडे 5८०१. बादरकिट्टीवेदगद्धासमत्तिसमणंतरमेव सुहुमकिट्टीओ ओकड्डियूण वेदेमाणो ताधे पढमसमयसुहुमसांपराइयभावेणेसो परिणदो त्ति वुत्तं होइ। * ताधे चेव सुहुमसांपराइयकिट्टीणं जाआ द्विदीओ तदो द्विदिखंडयमागाइदं । ६८०२. तम्मि चेव सुहमसांपराइयपढमसमए लोभसंजलणसहुट्टिीणं जाओ द्विदीओ अंतोमुहत्तपमाणाओ तत्तो संखेज्जविभागमेत्तं टिदिखंडयं गहेदुमाढत्तमिाद वुत्तं होइ। मोहणोयाणुभागस्स किटीगदस्स जा अणसमयोवद्रणा व्यपरूविदा सा तहा चेव पयदि त्ति दवा, तत्थ णाणत्ताभावादो। णाणावरणादिकम्माणं पि दिदि-अणुभागघादा पुव्वं व पयर्टेति त्ति ण तत्य वि परूवणाभेदो आढत्तो। संपहि तत्थतणपदेसग्गमोकट्टियूण कधं णिसिंचदि ति आसंकाए णिग्णयविहाणट्टमुवरिमसुत्तारंभो * तदो पदेसग्गमोकट्टियूण उदये थोवं दिण्णं । ६८०३. सहुमसांपराइयकिट्टीणमुक्कीरिज्जमाणाणुक्कीरिज्जमाणदिदीहितो पदेसग्गस्सासंखेज्जदिभागमोकड्डियूण पुणो ओकड्डिक्सयलवव्वस्सासंखेज्जे भागे पुध टुविय तदसंखेज्जदिभागमेत्तपदेसग्गं गुणसेढोए गिसिंचमाणो उदयट्टिवीए थोवयरमेव पदेसग्गमसंखेज्जसमयपबद्धपमाणं णिसिंचदि त्ति वुत्तं होदि। ६८०१. बादरकृष्टियोंके वेदककालके समाप्त होनेके समनन्तर हो सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको अपकर्षित करके वेदन करता हुआ यह क्षपक जीव उस समय प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकभावसे परिणत हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * उसी समय सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंकी जो स्थितियां हैं उनमेंसे स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता है। ६८०२. उसी सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समयमें लोभ संज्वलनसम्बन्धी सूक्ष्मकृष्टियोंकी अन्तर्मुहर्त प्रमाण जो स्थितियां हैं उनमें से संख्यातवें भागप्रमाण स्थिातकाण्डकको ग्रहण करनेके लिए आरम्भ करता है। कृष्टिगत मोहनीयके अनुभागकी जो अनुसमय अपवर्तना पहले कह आये हैं वह उसी प्रकार प्रवृत्त रहती है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि उसमें नानापने का अभाव है। इसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोका भी स्थितिघात और अनुभागघात पहलेके समान प्रवृत्त रहता है, उसमें भी प्ररूपणाभेद नहीं आरम्भ होता है। अब वहाँसम्बन्धी प्रदेशपंजका अपकर्षण करके किस प्रकार सिंचन करता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको आरम्भ करते हैं * उसके बाद प्रवेशपुंजका अपकर्षण करके उवयमें अल्प द्रव्य दिया गया है। ६८०३. सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको उत्कीर्यमाण और अनुत्कीर्यमाण स्थितियोंमेंसे प्रदेशपंजके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके पुनः अपकर्षित समस्त द्रव्यके असंख्यात बहुभागप्रमाण प्रदेशपंजको पृथक् स्थापित करके उसके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशजको गुणश्रेणिरूपसे सिंचन करता हुआ उदय स्थितिमें स्तोतर ही असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशपुंजका सिंचन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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