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________________ aa गढीए किट्टीबंधोदयमीमांसा जत्थ जत्थ वेदगस्स पढमसंगह किट्टि भणिहिवि तत्थ तत्थ किट्टीकरणद्धाए जा तदियसंगकट्टी सा चेव घेत्तव्वा, अण्णहा अणंतरपरूविददोसप्प संगतदो । एवं च पढमसंगह किट्टिमोकड्डिण वेणी किमविसेसेण सव्वाओ चैव तदंतर किट्टीओ उदयं पवेसेदि आहो अस्थि कोइ विसेसो त्ति आसंकाए णिण्णय विहाणद्वमुत्तरसुत्तमाह * ताहे कोहस्स पढमाए संगह किट्टीए असंखेजा भागा उदिण्णा । ४३ ११५. कोहपढमसंग किट्टीए जहण्ण किट्टिप्पहूडि हेट्ठिमासंखेज्जदिभागं पुणो तिस्से चेत्र उक्कस्स किट्टप्प हुडि उवरिमासंखेज्जदिभागं च मोत्तूण सेसमज्झिमा असंखेज्जा भागा तक्कालमुदयमागदा त्ति भणिदं होदि । हेट्ठिमोवरिमासंखेज्जदिभागविसयाणं सरिसधणियकिट्टीणं परिणामविसेसमस्तिपूण मज्झिमकिट्टिसरूवेणेव उदयपरिणामो होदि त्ति एसो एदस्स भावत्यो । एवमुदयपरूवणं काढूण संपहि कोहसंजलणस्स अणुभागबंधी कधं पयट्टवित्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तावयारो * एदिस्से चैव कोहस्स पढमाए संगहकिट्टीए असंखेजा भागा बज्झति । $ ११६. कुदो ? उदयादो अनंतगुणहीणसरूवेण पयट्टमाणस्स बंधस्स तहा पवृत्तीए विरोहाभावादो । तदो उदिण्णाओ किट्टीओं बहुगीओ, एदाओ बज्झमाण किट्टीओ विसेसहीणाओ ति घेत्तव्वं, उदिष्णाणं किट्टीणं हेट्टिमोर्वारिमासंखेज्जदिभागं मोत्तूण सेसमज्झिमबहुभाग सरूवेण वह यहाँ कृष्टिवेदक के प्रथम संग्रहकृष्टि है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार, मानादिक की अपेक्षा भी जहाँ-जहाँ कृष्टिवेदक के प्रथम संग्रह कृष्टि कहेंगे वहाँ-वहाँ कृष्टिकरण के कालमें जो तीसरी संग्रह कृष्टि है वही ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अनन्तर पूर्व कहे गये दोषका प्रसंग प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रथम संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाला जीव क्या सामान्यरूपसे अपनी सभी अन्तर कृष्टियोंको उदयमें प्रविष्ट कराता है या कोई विशेषता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करने के लिए आगे के सूत्रको कहते हैं * उस कृष्टिवेदक कालके प्रथम समय में इसी क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुभागप्रमाण वह उदयको प्राप्त होती हैं। $ ११५. क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टिसे लेकर अधस्तन असंख्यातवें भागमाण तथा उसीकी उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़कर शेष बीचकी असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टियों उस समय उदयको प्राप्त होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको विषयभूत सदृश धनवालो कृष्टियोंका परिणाम विशेषका अवलम्बन लेकर मध्यम कृष्टिरूपसे हो उदयपरिणाम होता है इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है । इस प्रकार उदयका कथन करके अब क्रोधसंज्वलनका अनुभाग बन्ध किस प्रकार प्रवृत्त होता है ऐसी आशंका होनेपर निर्णय करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार करते हैं* तथा इसी क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके असंख्यात बहुभाग बन्धको प्राप्त होते हैं । - $ ११६. क्योंकि उदयसे अनन्तगुणे हीनरूपसे प्रवृत्त होनेवाले बन्धकी उस रूपसे प्रवृत्ति होने में विरोधका अभाव है । इसलिए उदयको प्राप्त हुई कृष्टियों बहुत हैं। उनसे ये बन्धको प्राप्त होनेवाली कृष्टियाँ विशेष हीन हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उदयको प्राप्त हुई कृष्टियोंके अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष मध्यम बहुभागस्वरूपसे बंधने -
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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