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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे मप्पाएदि त्ति भणिदं होइ। एसा पढमट्टिदो एतो उपरि जा कोहवेदगद्धा तिस्से सादिरेय. तिभागमेत्ता त्ति दट्टव्वा । एवं पढमट्टि िकरेमाणो उदए थोवं देवि । तवणंरतद्विदीए असंखेज्जगुणं देदि। एवमसंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिवमाणो गच्छदि जाव पढमसंगहकिट्टीवेदगकालावो आवलियमेतणन्भहियं जादे त्ति । तत्तो विदियट्टिदीए आदिदिदिम्मि असंखेज्जगुणं णिक्खिवदि । तत्तो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणमसंखेजविभागेण । गुणसेढिणिक्खेवो पृण गलिदसेसो सव्वत्थ णादव्यो। एत्थ कोहस्स पढमसंगहकिट्टि त्ति भगिदे जा कारयस्स तदियसंगहकिट्टी सा वेदगस्स पढमसंगहकिट्टि त्ति घेत्तव्वा, तत्तो पहुडि पच्छाणुपुवीए जहाकममेव संगहकिट्टोणमेत्य वेदगभावसणादो। ६११४. जइ पुण किट्टीकारयस्त पढमसंगहकिट्टी एत्थ घेप्पइ तो को तत्य दोसो ? चें वुच्चदे-वेदिज्जमाणियाए संगहकिट्टीए असंखेज्जा भागा बज्झंति वेदिज्जति च । बंधोदया वि समयं पडि अणंतगुणहीणा होदूण गच्छंति त्ति एसो णियमो। संपहि एदम्हि णियमे संते जा अणुभागेण बहगी संगहकिट्टी सा चेव पुवमुदयमागच्छदि त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा घेप्पमाणे पढमसंगहकिट्रीवेदगकाले णिदिवे तदणंतरसमए विदियसंगहकिट्टि वेदेमाणो तिस्से असंखेज्जे भागे बंदि वेदेति च । तहाच संते तक्काले बंधोदया पविल्लबंधोवीडितो अणंतगणो पाति । ए णेच्छिज्जदे, पडिसमयमणंतगुणकमेण विसोहिपरिणामेसु वडमाणेसु तेसि तहा पवुत्तिविरोहादो । तम्हा कारगस्स तदियसंगहकिट्टी एत्थ वेदगस्स पढमसंगहकिट्टि ति घेत्तव्वा । एवं माणादीणं आवलिप्रमाण अधिक करके प्रथम स्थितिको उत्पन्न करता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । यह प्रथम स्थिति इससे आगे जो क्रोधवेदक काल है उसके साधिक तृतीय भाग प्रमाण जाननी चाहिए । इस प्रकार प्रथम स्थितिको करता हआ अपकर्षित किये गये प्रदेशपंजको उदयमें स्तोक देता है, उससे अगली स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हा प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदक कालसे एक आवलि प्रमाण अधिक करके निक्षिप्त करता है। उससे द्वितीय स्थितिकी आदि स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको निक्षिप्त करता है। उसमे ऊपर सर्वत्र असंख्याता भागहीन प्रदेशपुंजका निक्षेप करता है। तथा गुणश्रेणिनिक्षेप सर्वत्र गलित शेष जानना चाहिए। यहाँपर क्रोधको प्रथम संग्रह कृष्टि ऐसा कहनेपर जो कृष्टिकारककी तीसरी संग्रह कृष्टि है वह कृष्टिवेदकको प्रथम संग्रह कृष्टि है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि कृष्टिवेदककालके प्रथम समयसे लेकर पश्चादानुपूर्वोके अनुसार क्रमसे ही संग्रह कृष्टियोंका यहाँपर वेदकपना देखा जाता है। ६११४. पुनः यदि कृष्टिकारकको प्रथम संग्रह कृष्टिको यहाँपर ग्रहण किया जाता है तो उसमें क्या दोष है ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि वेदी जानेवाली संग्रहकृष्टिके असंख्यात बहुमाग प्रमाण बंधती हैं और वेदी जाती हैं। तथा बन्ध-उदय दोनों ही प्रतिसमय अनन्तगुणे होन होते जाते हैं ऐसा नियम है। अब इस नियमके होने पर जो संग्रहकृष्टि अनुभागकी अपेक्षा बड़ी है वही पहले उदयमें आती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, इससे अन्यथा ग्रहण करनेपर प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदक काल समाप्त होनेपर तदनन्तर समयमें दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाला उसके असंख्यात बहुभागको बांधता और वेदता है, और ऐसा होनेपर उस कालमें होनेवाले बन्ध और उदय पूर्वके बन्ध और उदयसे अनन्तगुणे प्राप्त होते हैं। किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि प्रत्येक समयमें अनन्तगुणित क्रमसे विशुद्धिरूप परिणामोंकी वृद्धि होनेपर उन बन्ध और उदयके उसरूप प्रवृत्ति होने में विरोष आता है। अतएव कृष्टिकारकके जो तीसरी संग्रहकृष्टि है
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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