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________________ जयघवलास हिदे कसायपाहुडे भणंति ? णेदं समंजसं, तहान्भुवगमस्स जुत्तिबाहियत्तादो। ण च विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्ज विभागपडि भागिओ त्ति एदेण सुत्तेंण तस्स तहाभावसिद्धी, सत्याण विसेसमुद्देसिय तस्स पट्टत्तादो । तम्हा परत्थाणे सव्वत्थ पयडिविसेसो चेव आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागिओ घेत्तव्वो । ८० * विदिया संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । * तदियाए संगहकिट्टीए पदेसग्गं विसेसाहियं । $ २०९. एवेसु दोसु सुत्तेसु विसेसो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागिओ घेत्तव्वो, सत्थाणे पयारंतरासंभवादो । शंका- इस अल्पबहुत्वमें स्वस्थान विशेषके प्रमाणके समान परस्थान विशेषका प्रमाण भी पल्योपम के असंख्यातवें भागका प्रतिभागोस्वरूप होता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते हैं ? समाधान - किन्तु उनका यह कथन समंजस नहीं है, क्योंकि उस प्रकार से स्वीकार करना युक्ति से बाधित है। यदि कहा जाय कि 'विशेषका प्रमाण पत्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप होता है' इस प्रकार इस सूत्र द्वारा विशेषके प्रमाणकी उसरूपसे सिद्धि हो जायगी सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त सूत्र स्वस्थानविशेषको लक्ष्य कर प्रवृत्त हुआ है । इसलिए परस्थान में सर्वत्र प्रकृति विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थं - प्रकृतमें अल्पबहुत्व के दो भेद हैं- १. स्वस्थान अल्पबहुत्व और २. परस्थान अल्पबहुत्व | प्रत्येक कषायकी तीन-तीन संग्रह कृष्टियाँ हैं । उनमेंसे प्रत्येक कषायकी अपनी संग्रह कृष्टियों में प्रदेशपुंज की अपेक्षा अल्पबहुत्वका विचार करना स्वस्थान अल्पबहुत्व है और विवक्षित कषायकी तीसरी संग्रह कृष्टिकी अपेक्षा दूसरो कषायकी प्रथम संग्रह कृष्टिके मध्य अल्पबहुत्वका विचार करना परस्थान अल्पबहुत्व है । स्वस्थान अल्पबहुत्व में विशेषका प्रमाण लाने के लिए पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागप्रमाण विशेषका प्रमाण प्राप्त किया जाता है और परस्थान अल्पबहुत्वमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागप्रमाण विशेषका प्रमाण प्राप्त किया जाता है। यहां मानसंज्वलनकी तीनों संग्रह कृष्टियों में स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते समय मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे दूमरी संग्रह कृष्टि और दूसरीसे तीसरी संग्रह कृष्टि कितनी विशेष अधिक है इसका 'विसेसो पलिदोवमस्स० ' इत्यादि सूत्र द्वारा स्पष्ट रूपसे जैसे उल्लेख कर दिया है वैसे ही परस्थान अपल्पबहुत्व में पिछली कषायकी तीसरी संग्रह कृष्टि से अगली कषायकी प्रथम संग्रह कृष्टि विशेष अधिक होते हुए भी कितनी विशेष अधिक है इसका किसी सूत्र द्वारा प्रकृत में उल्लेख नहीं किया गया है। इसलिए शंकाकार दोनों स्थलोंपर विशेषका प्रमाण लाने के लिए एक ही भागहार स्वीकार करता है । किन्तु वीरसेन स्वामीने इस कथनको युक्ति से बाधित स्वीकार करके परस्थान अल्पबहुत्व में विशेषका प्रमाण प्राप्त करनेके लिए भागहार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण स्वीकार किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है । * उससे दूसरी संग्रह कृष्टिका प्रदेशपुंज विशेष अधिक है । * उससे तीसरी संग्रह कृष्टिका प्रवेशपंज विशेष अधिक है । $-२०९. इन दोनों सूत्रों में विशेष पल्योपमके असंख्यातवें भागका प्रतिभागीस्वरूप ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्वस्थानमें अन्य प्रकार सम्भव नहीं है ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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