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________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * विदियाए किट्टीए विसेसहीण मणंतभागेण । $ ७९. एत्थानंतभागेणेत्ति वृत्ते एयवग्गणविसेसमेत्तेणेत्ति घेत्तम्वं । तेण पढमकिट्टीए णित्ति देसग्गादो विदियकिट्टीए णिसिचमाणपदेसग्गमेयवरगण विसेसमेत्तेण होणं होदि त्ति सिद्धं । * ताव अनंतभागहीणं जाव अपुव्वाणं चरिमादोति । २८ ८०. एगेण वग्गणविसेसमवद्विदपमाणमणं तराणंतरादो हीणं काढूण ताव णेदव्वं जाव विदियसमए लोहस्स पढमसंगह मिट्टीए हेट्ठा णिवत्तिज्जमाणाण नपुत्र किट्टोणं चरिम किट्टीदो त्ति । कुद ? एम्म अद्धा अनंतभागहाणि मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। एवमेदम्मि विसए अनंत भागहाणी पविणा काढूण तदो पढमसमयणिन्बत्तिदाणं लोभस्स पढमसंगह किट्टीए अंतर किट्टीणं जा जहणिया पुव्व किट्टी तत्थ केरिसं पदेसणिवखेवं करेदित्ति आसंकाए निण्णयविहाणट्ठमुत्तरसुत्तारंभी * तदो पढमसमए णिव्वत्तिदाणं जहणियाए किट्टीए विसेसहीणमसंखेज दिभागेण । $ ८१. तं जहा - पढमसमए किट्टीसु णिसित्ता से सपदे सपिंडादो विदियसमए किट्टीसु निसिच्चमाणसयल पदे सपिंडो असंखेज्जगुणो होदि । किं कारणं ? अनंतगुणविसोहीए ओकड्डियून गहिदत्तादो । तेण कारणेण विदियसमयाम्म अपुव्वाणं चरिमकिट्टीए निसित्तपदेस पडो पढमसमय * दूसरी कृष्टिमें अनन्तवें भाग प्रमाण विशेषहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । ७९. इस सूत्र में 'अनंतभागेण' ऐसा कहने पर 'एक वर्गणाविशेषमात्रसे' ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसलिए प्रथम कृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुंज से दूसरी कृष्टि में निक्षिप्यमान प्रदेश पुंज एक वर्गणाविशेषमात्र होन होता है यह सिद्ध होता है । * इस प्रकार तब तक अनन्तवें भागप्रमाण होन द्रव्य दिया जाता है जबतक कि लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे निर्वर्तमान अपूर्व कृष्टियोंकी अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है । ९८० एक वर्गणाविशेषको अवस्थित प्रमाणरूपसे हीन करके अनन्तर तदनन्तर क्रमसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक दूसरे समय में लोभको प्रथम संग्रह कृष्टिके नीचे निवर्तमान अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टि प्राप्त होती है, क्योंकि इस स्थानमें अनन्त भागहानिको छोड़कर अन्य प्रकार असम्भव है । इस प्रकार इस स्थान पर अनन्त भागहानिरूपसे प्रदेशविन्यास करके उसके बाद लोभको प्रथम संग्रह कृष्टिको प्रथम समय में निर्वर्तमान अन्तर कृष्टियोंकी जो जघन्य पूर्व कृष्टि है उसमें किस प्रकारके प्रदशोंका निक्षेप करता है ऐसी आशंका होने पर निर्णयका विधान करने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करत हैं * उससे प्रथम समय में निर्वर्तत लाभकी प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तर कृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिमें असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशपुंज दिया जाता है । ९ ८१ वह जैसे - प्रथम समय में कृष्टियां में निक्षिप्त किये गये समस्त प्रदेशपिण्ड से दूसरे समय में कृष्टियों मे निक्षिप्यमान समस्त प्रदेशविण्ड असंख्यातगुणा होता है । शंका- इसका क्या कारण है ? समाधान - क्योंकि अनन्तगुणी विशुद्धिवश अपकर्षित करके इस प्रदेशपिण्डका ग्रहण किया है । इस कारण दूसरे समय में अपूर्व कृष्टियों की अन्तिम कृष्टिमें निक्षिप्त किया गया प्रदेशपिण्ड
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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