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________________ aarसेढीए विदियसमए किट्टी अप्पा बहुअपरूवणा २७ लोभाणं पि अप्पप्पणो पदेसग्ग मोकड्डियूण सगसग संगहकिट्टीणं पढमसमयणिव्वत्तिदाणं हेट्ठा पादेक्कमसंखेज्जभागमेत्तीओ णिव्वत्तदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्य संगहो । तदो बारसहं पि संगहकिट्टीणं जहष्ण कट्टी हितो हेट्ठा पादेवकं पुण्व किट्टीणमसंखेज्जदिभागमेत्तीओ अपुण्व किट्टीओ णिव्वत्तेमाणस्स बारससु द्वाणेसु अपुष्वाणं किट्टीणं विदियसमये पादुब्भावो जादो त्ति घेत्तव्वं । ७५. संपहि तत्थ दिज्जमानपदेसग्गस्स सेढिपरूवणट्टमुत्तरं सुत्तपबंधमाह - * विदियसमए दिजमाणयस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणं बत्तइस्सामो । ६ ७६. सुगमं । * तं जहा । · ७७. सुगमं । * लोभस्स जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहुअं दिजदि । ६७८. एत्थ लोभस्स जहण्णिया किट्टी त्ति वृत्ते लोभसंजलणस्स पढमसंगह किट्टीदो हेट्ठा व्वित्तिज्जमाणाणमणताणमपृथ्व किट्टीणमादिम किट्टी' घेत्तव्या । तत्थ दिज्जमानपदे सग्गमुवरिमकिट्टीसु दिज्जमानपदे सग्गादो बहुगं होइ, अण्णहा किट्टीगदपदेसग्गस्स पुष्वाणुपुथ्वीए एगगोवुच्छायारेणावणाणुववत्तदो । पुंजका अपकर्षण करके प्रथम समय में निष्पादित अपनी-अपनी संग्रह कृष्टियों के नीचे प्रत्येक सम्बन्धी असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है इस प्रकार यह यहाँ पर इस सूत्र का समुच्चयरूप अर्थ है । इसलिए बारहों संग्रह कृष्टियोंकी जघन्य कृष्टियोंसे नीचे प्रत्येक सम्बन्धी पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करनेवालेके बारहों स्थानों में अपूर्व कृष्टियोंका दूसरे समय में प्रादुर्भाव हो जाता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये । विशेषार्थ – सब संग्रह कृष्टियां १२ हैं । उनमें से प्रत्येक संग्रह कृष्टिसे नीचे प्रत्येक संग्रह कृष्टि सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियोंका जितना प्रमाण है उनके असंख्यातवें भागप्रमाण अपूर्व कृष्टियोंको दूसरे समय में यह जीव निष्पादित करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ ७५. अब उनमें दोयमान प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा करनेके लिए आगे के सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * दूसरे समय में वीयमान प्रवेशपुंजका श्रेणिप्ररूपण बतलावेंगे । ९ ७६. यह सूत्र सुगम है । वह जैसे । $ ७७. यह सूत्र सुगम है । लोभको जघन्य कृष्टिमें बहुत प्रदेशपुंज दिया जाता है । ७८. यहाँ पर 'लोभको जघन्य कृष्टि' ऐसा कहने पर लोभसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिसे नीचे निष्पादित होनेवाली अनन्त अपूर्व कृष्टियोंकी आदि कृष्टि ग्रहण करनी चाहिये । उसमें दीयमान प्रदेश पुंज उपरिम कृष्टियों में दोयमान प्रदेश पुंजसे बहुत होता है, अन्यथा कृष्टिगत प्रदेशपुंजका पूर्व और अपूर्व कृष्टियोंकी अपेक्षा एक गोपुच्छाकाररूपसे अवस्थान नहीं बन सकता । १. आ. प्रतौ किट्टीओ इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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