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________________ M जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ७२. पढमसमयमोकड्डिवदव्वादो असंखेज्जगुणं वध्वमोकड्डियूण किट्टीकारगविदियसमए किट्टीओ करेमाणो पढमसमयणिव्वत्तिदकिट्टीणं हेवा अण्णाओ' अपुवाओ किट्टोओ णिश्वत्तेदि । पुवणि वत्तिदाओ च सरिसणियमुहेण णिवत्तेदि । तासिमपुवाणं किट्टोणं किपमाणमिदि वुत्ते पढमसमए णिव्वत्तिदकिट्रीणमसंखेज्जदिभागमेत्ताओ त्ति तासि पमाणणि सो कदो। पढमसमयणिव्वत्तिदकिट्टीसु तप्पाओग्गपलिवोवमासंखेज्जभागेणोवट्टिवासु तत्थ भागलद्धमत्ताणमपुवकिट्टोणं विवियसमए णिवत्ती होवि त्ति वुत्तं होदि।। ७३. संपहि विवियसमयकिट्टीकारगो तकालोकट्टिक्सयलदम्वस्तासंखेज्जविभागं घेतूणापुवकिट्टीसु णिविखविय सेसबहुभागदध्वं पृथ्वकिट्टीसु फद्दएसु च समयाविरोहेण णिविखवदि त्ति घेत्तव्वं । संपहि तासिमपुल्वाणं किट्टोणं कदमम्मि ओगासे णिवत्ती होदि ति आसंकाए गिरारेगीकरणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * एकेकिस्से संगहकिट्टीए हेट्ठा अपुवाओ किट्टीओ करेदि । ७४. कोहसंजलणस्स पुवायुवफद्दहितो पदेसगमोकड्डियूण अप्पणो तिण्हं संगहकिट्टोणं हेट्टदो पादेक्कमपुवाओ किट्टीओ पुवकिट्टीणमसंखेज्जदिभागमेतीओ णिव्वत्तेवि । एवं माण-माया ७२. प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये द्रव्य से असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके कृष्टिकारक जीव दूसरे समय में कृष्टियोंको करता हुआ प्रथम समय में निष्पादित की गयी कृष्टियोंके नोचे अन्य अपूर्व कृष्टियों को निष्पादित करता है। तथा पूर्वमें निष्पादित हुई कृष्टियोंको सदृश धनरूपसे निष्पादित करता है । उन अपूर्व कृष्टियोंका क्या प्रमाण है ऐसा कहने पर प्रथम समयमें निष्पादित की गयी कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है इस प्रकार उनके प्रमाणका निर्देश किया है। प्रथम समयमें निष्पादित की गयो कृष्टियोंको तत्प्रायोग्य पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अपवर्तित करने पर वहां जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण अपूर्व कृष्टियों को दूसरे समयमें निष्पत्ति होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-प्रथम समय में जितनी कृष्टियोंकी निष्पत्ति होती है उनके प्रमाणमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो लब्ध आवे, जो कि प्रथम समयमें निष्पन्न की गयो कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, उतनी अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है। इसके साथ ही प्रथम समयमें निष्पन्न की गयी कृष्टियों के समान धनवालो कृष्टियोंको भी निष्पादित करता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । 5७३. अब दूसरे समयमें कृष्टिकारक जीव तत्काल अपकर्षित किये गये समस्त द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको ग्रहण करके तथा उसे अपूर्व कृष्टियों में निक्षिप्त करके शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको पूर्वकी कृष्टियोंमें और स्पर्धकों में आगमके अविरोध पूर्वक निक्षिप्त करता है ऐसा प्रकृतमें ग्रहण करना चाहिये। अब उन अपूर्व कृथ्यिों को किस अवकाश ( स्थान ) में निष्पति होती है ऐसी आशंका होने पर निःशंक करने के लिए आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * एक-एक संग्रह कृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टियोंको करता है। 5७४. क्रोष संज्वलनके पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंमें से प्रदेशपुंजका अपकर्षण करके अपनी तोनों संग्रह कृष्टियोंके नीचे पूर्व कृष्टियोंके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रत्येक सम्बन्धी अपूर्व कृष्टियोंको निष्पादित करता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभसंज्वलनसम्बन्धी भो अपने-अपने प्रदेश१. आ. प्रती-किट्टीणं अण्णाओ इति पाठः ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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