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________________ वगढी अट्टमूलगाहाए तदिणभासगाहा १७५ आवलियाए असंखेज्जविभागमेत्तोओ असामण्णद्विबीओ लग्भंति त्ति घेत्तव्यं । संपहि एवस्सेवत्थस्स फुडीकरणमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा । ६ ४६८. सुगमं । * सामण्णसण्णा ताव । ६ ४६९. सामण्णसण्णाए अविष्णादाए असामण्णसण्णा ण जाणिज्जदि त्ति काढूण पुत्रमेव ताव सामण्णसण्णा परूवणं कस्सामो त्ति भणिदं होइ । * एक्कम्हि ठिदिविसेसे जम्हि समयपबद्ध से सयमत्थि सा हिंदी सामण्णा ति णादव्वा । ४७०. जम्हि एक्कम्हि णिरुद्धद्विदिविसेसे समयपबद्ध से सयमेगपरमाणुमावि काढूण जावकरसेणाणता परमाणु ति दीसह सा ठिवी सामण्णद्विबिसण्णं लहवि त्ति वृत्तं होइ । कुबो पुण एक्स्स द्विदिविसेसस्स सामण्णसण्णा जादा त्ति चे ? ण, समयपबद्धासेस परमाणूण मियरपरमाणूणं च साहारणभावेणावद्विवस्स तिस्से तब्ववएसा विरोहावो । भवबद्धसेसयं पि अस्सियूण सामण्ण द्विदिसण्णा एवं चेव जोजेयव्वा, सुत्तस्सेदस्स देसाभासय भावेणावद्विवत्तावो । * जम्मि णत्थि साट्ठिदी असामण्णा त्ति णादव्वा । दो, तीन आदिके क्रमसे जाकर उत्कृष्टसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण असामान्य स्थितियाँ इस क्षपकके उपलब्ध होती हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। अब इसो अर्थको स्पष्ट करने के लिए आगे विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब उक्त सूत्र गाथाकी विभाषा करते हैं । ६ ४६८. यह सूत्र सुगम है । * सर्वप्रथम सामान्य संज्ञाका स्वरूप कहते हैं । $ ४६९. क्योंकि सामान्य संज्ञाके अविज्ञात रहनेपर असामान्य संज्ञाका ज्ञान नहीं होता ऐसा समझकर पहले ही सामान्य संज्ञाकी प्ररूपणा करेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * जिस एक स्थितिविशेषमें समयप्रबद्धशेष पाया जाता है वह स्थिति सामान्य संज्ञावाली है ऐसा जानना चाहिए । ४७०. जिस विवक्षित एक स्थितिविशेष में एक परमाणुसे लेकर उत्कृष्टसे अनन्त परमाणु तक समयप्रबद्धशेष दिखाई देता है वह स्थिति सामान्य स्थिति संज्ञाको प्राप्त होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका- इस स्थितिविशेषकी सामान्य संज्ञा किस कारणसे हो गयी है ? समाधान- नहीं, क्योंकि समयप्रबद्धशेष के परमाणु तथा दूसरे परमाणु साधारणरूपसे उस स्थिति में अवस्थित रहते हैं, इसलिए उसकी सामान्य संज्ञा है इसमें कोई विरोध नहीं पाया जाता । भवबद्धशेषका भी आलम्बन लेकर सामान्य स्थिति संज्ञाकी इसी प्रकार योजना करनी चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशा मर्षकरूपसे अवस्थित है । * जिसमें सामान्य स्थिति नहीं पायी जाती वह स्थिति असामान्य संज्ञावाली होती है ऐसा जानना चाहिए ।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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