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जयrवलासहिदे कसायपाहुडे
६४६५. तं जहा - 'एक्कम्हि द्विदिविसेसे० ' एवं भणिवे जहि अण्णदरट्ठिविविसेसे समयबद्ध से सयाणिण संभवंति सा द्विदी असामण्णसण्णिदा णादग्या त्ति गाहापुग्वद्धे सुत्तत्थसंबंधो। तेण भवबद्धसेसयाणि समयपबद्धसेसयाणि च जिस्से द्विदीए निम्मूलदो ण संति सा द्विदी असामण्णसण्णा ववहारेयध्वा त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । एदेणेव जम्हि द्विदिविसेंसे भवसमयपबद्ध सेयाणि अत्थि सा द्विदी सामण्णसण्णाए ववहारेयव्वा त्ति एसो वि अत्यो सूचिदो दटुग्वो, दोहदा सिमण्णोणसव्यपेक्खत्तादो भवसमयपबद्ध सेसयाणमाहारभावेण समणिदाओ द्विदीओ सामण्णद्विदीओ । सिमणाघारभूदाओ द्विदीओ असामण्णाओ त्ति एसो एक्स्स भावत्थो ।
४६६. एवमेदेण गाहा पुग्वद्वेण सामण्णासामण्णद्विदीनं सख्वपरूवणं कादूण संपहि असामण्णद्विदीओ निरंतरमुक्कस्लेण एत्तियमेत्तीओ होंति त्ति जाणावणटुं गाहापच्छद्धमाह'आवलिया संखेज्जदिभागो' आवलियाए असंखेज्ज विभागमेत्ता 'तम्हि' खवगम्हि तम्हि वा वासपुधत्तमेतं व द्विदिविसेसे 'तारिसा समया' भवसमयपबद्ध सेस विरहिदा असामाद्विविविसेसा निरंतरसरूवेण लब्भंति, तत्तो अहिययराणमसामण्ण द्विदोणं निरंतरस हवेण खवगसेढिम्मि संभवाणुवलंभावोति भणिदं होदि ।
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६ ४६७. एसो उक्कस्सपक्खेण असामण्णद्विवीणं पमाणणिद्देसो सुत्ते कओ । तदो जहणणेण एगा चेव असामण्ण द्विवी एक्स्स खवगस्स लब्भइ । एवं दो-तिष्णिआदिकमेण गंतून उक्कस्सेण
६ ४६५. वह जैसे - 'एक्कम्हि ट्ठिदिविसेसे' ऐसा कहनेपर जिस अन्यतर स्थिति विशेष में समयप्रबद्धशेष सम्भव नहीं हैं उस स्थितिको असामान्य संज्ञक जाननी चाहिए यह इस भाष्यगाथा के पूर्वार्ध में सूत्रार्थंका सम्बन्ध है । इसलिए जिस स्थिति में भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेष पूरी तरह से नहीं होते हैं वह स्थिति असामान्य संज्ञाके द्वारा व्यवहृत करनी चाहिए यह वहीं सूत्रार्थ का संग्रह है। तथा इसीसे जिस स्थिति में भवबद्धशेष और समयबद्धशेष पाये जाते हैं उस स्थितिका सामान्य संज्ञारूपसे व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार इस भाष्यगाथाके पूर्वार्ध द्वारा यह अर्थ भी सूचित कर दिया गया जानना चाहिए। यहाँ इन दोनोंके परस्पर सापेक्ष होने के कारण भवबद्धशेष और समयप्रबद्धशेषके आधाररूपसे समन्वित जितनी भी स्थितियां होती हैं वे सामान्य स्थितियाँ कहलती हैं और जो स्थितियाँ उन दोनोंकी आधार नहीं होती हैं वे असामान्य स्थितियां कहलाती हैं इस प्रकार यह इसका भावार्थ है ।
ई ४६६. इस प्रकार इस गाथाका पूर्वाधं द्वारा सामान्य और असामान्य स्थितियोंके स्वरूपका कथन करके अब असामान्य स्थितियां निरन्तर उत्कृष्टरूप से इतनी होती हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करते हैं - ' आवलियासंखेज्जदिभागो' आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण 'तारिसा समया' भवबद्ध और समयप्रबद्धसे रहित आसामान्य स्थितिविशेष उस क्षपकके वर्षपूथक्त्व काल तक पुनः पुनः निरन्तररूपसे पाये जाते हैं, क्योंकि उनसे अधिक असामान्य स्थितियां क्षपकश्रेणिमें निरन्तररूपसे उपलब्ध होना सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थं - यहां असामान्य स्थितियाँ एक बारमें लगातार अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण होकर भी अन्तरके साथके वर्षंपृथक्त्व कालके भीतर आवलिके असंख्यातवें भाग वार प्राप्त हो जाती हैं यह इस कथनका तात्पर्य है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
§ ४६७. यह उत्कृष्टपक्षके अवलम्बन द्वारा असामान्य स्थितियोंके प्रमाणका निर्देश सूत्रमें किया है। इसलिए जघन्यसे एक ही असामान्य स्थिति इस क्षपकके उपब्ध होती है । इसी प्रकार