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________________ २७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे होदि । संपहि कोहविदियसंगहकिट्टोदो तेरसगुणायामा होवूण द्विदपढ मसंगह किट्टी विदियसंगहकिट्टीए ट्ठा अनंत गुणहाणीए परिणमिय तिस्से चेव अपुष्व किट्टी होण पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । ता सेससंग हकिट्टीणं पुध पुध जोइज्जमाणाणमायामादो एदिस्से आयामो चोद्दसगुणमेत्तो होदित्ति दट्ठम्बो, पढमसंगह किट्टी दव्व पडिग्गहमाहप्पेण तत्थ तहाभावोववत्तीए बाहाणुवलं भादो । णवकबंधु च्छाव लियपदेसग्गं च जहाकममेव विदियसंगहकि ट्टीए समयाविरोहेण संकर्मादि त्ति घेत्तव्वं । * ता कोहस्स विदिकिडीवेदगो । ६ ६७४ सुगमं । संपहि एवं कोहविदियसंगह किट्टोवेदगभावेण परिणदस्स पढमसमयप्पहूडि जाव सगवेगकालच रिमसमओ त्ति ताव परूवणाणुगमे कीरमाणे जो कोहपढम संगह किट्टो वेदगस्स ही दूसरी संग्रह कृष्टि ऊपर संक्रान्त हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । मन क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिसे तेरहगुणे आयामवाली होकर स्थित हुई प्रथम संग्रह कृष्टि दूमरी संग्रह कृष्टि नीचे अनन्तगुणी हानिरूपसे परिणमकर उसीको अपूर्व कृष्टि होकर प्रवृत्त होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। उस समय पृथक्-पृथक् योज्यमान शेष संग्रह कृष्टियोंके आयामसे इसका आयाम चौदह गुणा होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि प्रथम संग्रह कृष्टिके द्रव्यको ग्रहण करनेसे जो अधिकता आ जाती है उस कारण उसमें उस रूपसे व्यवस्था बनने में कोई बाधा नहीं पायी जाती । नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिका प्रदेशपुंज क्रमसे दूसरी संग्रह कृष्टिमें समय के अविरोधपूर्वक संक्रमित होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । विशेषार्थ - प्रतिसमय जो कर्मबन्ध होता है उसका उत्तरोत्तर विभाग करनेपर जो चारित्रमोहनीयको द्रव्य प्राप्त होता है उसमेंसे साधिक आधा द्रव्य तो कषायसम्बन्धी द्रव्य है और कुछ कम आधा द्रव्य नोकषायसम्बन्धी है। उदाहरणार्थ अंकसंदृष्टिको अपेक्षा चारित्रमोहनीयका कुल द्रव्य ४९ मान लेनेपर असंख्यातवां भाग अधिक आधा २५ कषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । शेष असंख्यातवां भागहीन आधा २४ नोकषायसम्बन्धी द्रव्य होता है । यहाँ चारों संज्वलनोंकी संग्रह कृष्टियां १२ हैं, अतः कषायसम्बन्धी पूरे द्रव्यको इन १२ संग्रह कृष्टियों में विभाजित करनेपर क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिको साधिक २ अंकप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है । इसी विधिसे शेष ११ संग्रह कृष्टियों में से प्रत्येकको भी साधिक २ अंकप्रमाण द्रव्य प्राप्त हुआ । पुनः नोकषाय समस्त द्रव्य क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिमें संक्रमित होनेपर उसका कुलप्रमाण साधिक २ + २४ = २६ अंकप्रमाण प्राप्त होता है। जो कि इसी की दूसरी संग्रह कृष्टिसे साधिक १३ गुणा अधिक है । पुनः क्रोधसंज्वलन की प्रथम संग्रह कृष्टिके कुल द्रव्य साधिक २६ में द्वितीय संग्रह कृष्टिके २ अंक प्रमाण द्रव्यके मिलानेपर २६ + २ = २८ होता है जिसे क्रोधसंज्जनको तीसरी संग्रहकृष्टि आदिको तुलनामें देखनेपर साधिक १४ भाग अधिक होता है । यही मूल टोका में स्पष्ट किया गया है । * उस समय क्रोधसंज्वलनकी दूसरी संग्रह कृष्टिका वेदक होता है । ६ ६७४. यह सूत्र सुगम है। अब इस प्रकार क्रोधसंज्वलनकी द्वितीय संग्रह कृष्टिके वेदकभावसे परिणत हुए क्षपकके प्रथम समयसे लेकर अपने वेदन करनेके अन्तिम समय तककी प्ररूपणाका अनुगम करनेपर क्रोधसंज्वलनकी प्रथम संग्रह कृष्टिके वेदकको जो विधि कह आये हैं।
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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