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________________ खवगसेढीए कोहविदियकिट्टीवेदगरस सो चेव विही २७१ विधी परूविदो, सो चेव गिरवसेसमेत्थ कायव्वो, पत्थि किंचि णाणत्तमिदि अत्यसमप्पणं. कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___* जो कोहस्स पढमकिट्टि वेदयमाणस्स विधी सो चेव कोहस्स विदियकिदि वेदयमाणस्स विधी कायव्वो । ६६७५. जहा कोहपढमसंगहकिट्रीमहिकिच्च पुवुत्तासेसपरूवणा बंधोदयजहण्णुक्कस्स णिव्वग्गणादिकरणपडिबद्धा सवित्थरमणुमग्गिदा तहा चेव एत्थ वि परवेयव्वा त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो। संपहि को सो पुवुत्तो विधी, कदमेसु वा आवासएसु पडिबद्धो ति आसंकाए पुव्वुत्तस्सेव अत्यविसेसस्स संभालणट्ठमुत्तरं पबंधमाह * तं जहा। ६ ६७६ सुगममेदं पुच्छावक्कं । * उदिण्णाणं किट्टीणं बज्झमाणीणं किट्टीणं विणासिज्जमाणीणं अप्पुव्वाणं णिव्वत्तिज्जमाणियाणं बज्झमाणेण च पदेसग्गेण संछुब्भमाणेण च पदेसग्गेण णिव्वत्तिज्जयाणियाणं । ६६७७. एदेसि सम्वेसि आवासयाणं पढमसंगहकिट्टीपरूवणाए जो विधी परूविवो सो चेव वही पूरी यहाँपर करनी चाहिए। उससे इसमें कुछ भेद नहीं है इस प्रकार इस अर्थका समर्पण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * जो क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवको विधि प्ररूपित कर आये हैं वही विधि कोधसंज्वलनको दूसरी संग्रह कृष्टिका वेवन करनेवाले क्षपक जीवकी करनी चाहिए। ६६७५. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनको प्रथम संग्रह कृष्टिको अधिकृत करके बन्ध, उदय, जघन्य और उत्कृष्ट निर्वर्गणा आदि करणसे सम्बन्ध रखनेवालो पूर्वोक्त सम्पूर्ण प्ररूपणा विस्तारके साथ कर आये हैं उसी प्रकार यहाँपर भो कहनो चाहिए यह इस सूत्रका भावार्थ है। अब वह पूर्वोक्त विधि क्या है अथवा किनने आवश्यकोंमें वह प्रतिबद्ध है ऐसी आशंका होनेपर पूर्वोक्त अर्थविशेषकी ही सम्हाल करनेके लिए आगेके प्रबन्धको कहते हैं * वह जैसे। ६ ६७६. यह पृच्छावाक्य सुगम है। * उवीणं कृष्टियोंकी, बध्यमान कृष्टियोंकी, विनश्यमान कृष्टियोंकी, बध्यमान प्रदेशपंजसे निवर्त्यमान अपूर्व कृष्टियोंकी और संक्रम्यमाण प्रवेशपुंजसे निवत्यमान अपूर्व कृष्टियोंको विधिको प्रथम संग्रह कृष्टिके समान करना चाहिए। ६६७७. इन सब आवश्यकोंकी प्रथम संग्रह कृष्टिको प्ररूपणाके समय जो विधि प्ररूपित कर आये हैं वह सभी विधि पूरी यहां जानना चाहिए, क्योंकि उसकी प्ररूपणासे इसकी प्ररूपणामें
SR No.090227
Book TitleKasaypahudam Part 15
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size38 MB
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